राज सक्सेना
रामजन्म भूमि के मन्दिर पुनर्निर्माण की सतहत्तरवीं लड़ाई में विजय प्राप्ति के बाद कितने संघर्षों के बाद आये रामजन्मभूमि मन्दिर में भगवान राम के बाल स्वरूप के प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम को कुछ कुंठित और क्षुब्ध लोगों ने विवाद के साथ धार्मिक विभाजन के पुनर्स्थापन के प्रयास के साथ विघ्न डालने के प्रयास प्रारम्भ कर दिए हैं। इन प्रयासों में कुछ राजनैतिक दलों के साथ कुछ सामाजिक तबकों का तो प्रयास है ही, आश्चर्य की बात यह है कि इनमें सनातन धर्म के सर्वोच्च पीठासीन मानेजाने वाले एक दो शंकराचार्यों के प्रयास भी सम्मिलित हैं।
कैसी विडम्बना है कि राम जन्मभूमि मंदिर 550 साल बाद बन रहा है। इसके पार्श्व में विश्व हिन्दू परिषद, अखाड़ा परिषद, आश्रमों, मठ मंदिरों और कार सेवकों की सतत चेष्ठा के साथ स्वत्व बलिदान का पुरुषार्थ है। इसकी जड़ में गोरखपुर महंत दिग्विजयनाथ, अवैद्यनाथ, रामचंद्र परमहंस, नृत्यगोपाल दास, सत्यमित्रानंद, चिन्मयानंद, आचार्य धर्मेन्द्र और तेरह अखाड़े हैं, मार्गदर्शक मंडल है। इन सबसे बढ़कर अशोक सिंहल, आचार्य गिरिराज किशोर और कल्याण सिंह जैसे कर्मनिष्ठपुरुष हैं। अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी हैं। इनके साथ मंदिर मार्ग के लिए रथयात्रा के सारथी से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक पद पर रह कर सतत प्रयास करने वाले, मन्दिर निर्माण में आने वाले, सारे कंकर-पत्थर हटा कर मार्ग प्रशस्त करने वाले, सर्वोच्च नरेंद्र मोदी हैं, इसमें किसी को कोई शक नहीं है।
यद्यपि वैष्णव परम्परा में रामानंदाचार्य, रामानुजाचार्य आदि की भी पीठ हैं पर यहां हम शंकराचार्य से जुड़े प्रसंग पर चर्चा करते हैं, वह भी इसलिए क्योंकि शंकराचार्यों ने 22 जनवरी को राम मंदिर के उदघाटन में भाग लेने से इंकार कर दिया है। सनातन परम्पराओं के अनुसार आदिजगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों पीठ देशवासियों के लिए सर्वोच्च हैं। ये उत्तराखंड में जोशीमठ-बद्रिकाश्रम मठ, गुजरात में द्वारिका मठ, ओडिशा में जगन्नाथपुरी मठ और कर्नाटक में श्रंगेरी मठ। क्रमशः ज्योतिषपीठ, शारदापीठ, गोवर्धनपीठ और श्रंगेरीपीठ देश की चारों दिशाओं में धार्मिक व्यवस्था पीठ स्थापित हैं। इन चार पीठों की स्थापना शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में स्वयं की थी। इसके अतिरिक्त एक और पीठ तमिलनाडु के कांचीपुरम में है जहां स्वयं आदि शंकराचार्य ने रह कर तप किया, ज्ञान अर्जित किया और चारों पीठों की परिकल्पना की थी।
विडम्बना यह है कि एक शंकराचार्य ने तो साफ कह दिया है, कि जब ट्रस्ट द्वारा प्राण प्रतिष्ठा प्रधानमंत्री से कराई जा रही है तो उनके वहां जाकर तालियां बजाने का कोई औचित्य नहीं है। मतलब शंकराचार्य इस विराट आयोजन के दृष्टा नहीं, कर्ता बनना चाहते हैं। जहां तक शंकराचार्यों का प्रश्न है, ब्रह्मलीन स्वरूपानंद सरस्वती के अतिरिक्त अन्य किसी शंकराचार्य ने कभी भी राम मंदिर के लिए आवाज नहीं उठाई थी। स्वामी स्वरूपानंद महाराज ने भी आंदोलन में तो कभी भाग नहीं लिया, अलबत्ता विहिप के रामजन्मभूमि न्याय और संतों के मार्गदर्शक मंडल के समानांतर, अलग से रामालय न्यास बना लिया। वे अकेले ही अपनी ढपली बजाते रहे। उधर विहिप के संयोजन में राम मंदिर के लिए दस बार आयोजित धर्म संसदों में कोई भी शंकराचार्य कभी शामिल ही नहीं हुए। जहां तक शंकराचार्यों के लिए नियमावली की बात है, यह आदिशंकर ने शंकर महामठाम्नाय लिखकर पहले ही निर्धारित कर दिया है। विडम्बना देखिए कि इस समय ज्योतिषपीठ और शारदापीठ के शंकराचार्य तो केवल इसलिए बनाये गए हैं, क्योंकि दोनों ही स्वामी स्वरूपानंद जी के शिष्य थे। वैसे पीठ भले ही चार हों, परन्तु इस समय 21 संत भी ऐसे हैं जो अपने नाम से पूर्व जगद्गुरु शंकराचार्य पदनाम का प्रयोग अनवरत कर रहे हैं।
उपरोक्त शंकराचार्य ने घुमा फिरा कर यह भी कहा है मूर्ति का स्पर्श मोदी करें, यह उन्हें स्वीकार्य नहीं है। कैसी विडम्बना है कि वैदिक जातिविहीन वर्णव्यवस्था में कर्म से मोदी ‘राजा’ अर्थात क्षत्रिय हैं और उन्हें यजमान होने के साथ साथ मूर्ति स्पर्श का भी अधिकार स्वतरू प्राप्त है।
वस्तुतः आज के चारों शंकराचार्यों का 77वीं लड़ाई में विजय प्राप्त कर मंदिर निर्माण में कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं है। भगवान राम के काज में सैकड़ों वर्षों से बाधाएं डाली जाती रही हैं। आश्चर्यजनक बात है कि आयोजन से गिने दिन पूर्व एक और विवाद सनातन धर्म के शिखर पद से पैदा किया जा रहा है। पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने भी अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार कर दिया है। उन्होंने इस विषय में कहा है कि वह अयोध्या नहीं जाएंगे क्योंकि उन्हें अपने पद की गरिमा और मर्यादा का ध्यान है। उन्होंने यह भी कहा कि वहां पीएम नरेंद्र मोदी मूर्ति का लोकार्पण करेंगे और उसे स्पर्श करेंगे। तब क्या मैं वहां ताली बजा-बजाकर, जय-जय करूंगा? शंकराचार्य के इस बयान के बाद से विवाद शुरू हो गये हैं। प्रधानमंत्री मोदी के मूर्ति को स्पर्श करने को शंकराचार्य द्वारा रेखांकित करने पर पुराने विवाद की यादें भी ताजा हो गई हैं। साथ ही सवाल भी उठ रहे हैं कि ऐसे समय में जब नरेंद्र मोदी को सनातन धर्म के रक्षक के तौर पर आम जनता द्वारा देखा जा रहा है तब स्वामी निश्चलानंद उनसे नाराज क्यों हैं? और ऐसे अनर्गल बयान क्यों दे रहे हैं?।
उल्लेखनीय है कि गोवर्धन मठ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती पूर्व नाम नीलाम्बर का जन्म बिहार में हुआ था। 18 अप्रैल 1974 को हरिद्वार में लगभग 31 साल की आयु में स्वामी करपात्री महाराज के सान्निध्य में उन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इसके बाद से वह नीलाम्बर से स्वामी निश्चलानंद हो गए थे। तदोपरान्त पुरी के 144वें शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ महाराज ने स्वामी निश्चलानंद सरस्वती को अपना उत्तराधिकारी मानकर 9 फरवरी 1992 को पुरी के 145 वें शंकराचार्य पद पर आसीन कर दिया था। याद रखें पहले वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश की इजाजत नहीं थी। वर्ष 1958 में काफी लंबी लड़ाई के बाद दलितों को प्रवेश का मौका मिला। तब जैसे ही दलितों ने मंदिर में शिवलिंग को छुआ, तब करपात्री महाराज ने इसका मुखर विरोध ही नहीं किया, उन्होंने विश्वनाथ मंदिर को अस्पर्शनीय घोषित कर दिया और काशी में ही गंगा के तट पर एक दूसरा काशी विश्वनाथ बनवा डाला था। इन्हीं करपात्री महाराज के माध्यम से स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने भी संन्यास ग्रहण किया है। ऐसे में इस पुराने विवाद को नरेंद्र मोदी के रामलला की मूर्ति के स्पर्श करने को लेकर शंकराचार्य की जताई जा रही कथित आपत्ति से जोड़कर देखा जा रहा है तो कोई गलत नहीं किया जा रहा।
यह भी स्मरणीय है कि स्वरूपानंद सरस्वती ने अपने एक इन्टरव्यू में बताया था कि उन्होंने मंदिर निर्माण के लिए रामालय ट्रस्ट भी बनाया था। शंकराचार्य ने बताया था कि 90 के दशक में चारों शंकराचार्यों के सम्मेलन में राममंदिर निर्माण के लिए एक ‘रामालय ट्रस्ट’ का गठन किया गया था जिसमें शंकराचार्यों, वैष्णवाचार्यों, अखाड़े के प्रतिनिधियों सहित अन्य प्रतिनिधि सम्मिलित किए गए थे। इस ट्रस्ट का निर्माण अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए ही किया गया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि केंद्र सरकार ने एक कार्य कर रहे ट्रस्ट की जगह नया ट्रस्ट बनाकर एक पुनीत कार्य की अनदेखी की है?
एक ऐसे समय में जबकि सनातन धर्मावलम्बियों को सारे मतभेद भुलाकर कंधे से कंधा मिला कर इस धार्मिक कृत्य को तन, मन, धन की आहुति देकर करना चाहिए तब सर्वोच्च धर्माधिकारियों द्वारा इस प्रकार के विवादित बयान देकर देश, धर्म और बहुसंख्यक समाज के अवलम्बन को हानि पंहुचाने से परहेज करना चाहिए ताकि धर्म की मर्यादा बनी रहे और सनातनी समाज में सैकड़ों साल ठोकरें खाने के बाद नयी ऊर्जा का संचरण सम्भव हो सके।
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