गौतम चौधरी
भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी निवास करती है। उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए कई उत्पादों और सेवाओं को हलाल के रूप में प्रमाणित किया गया है। इस देश में हलाल सार्टिफिकेशन में जहां एक ओर एकरूपता का अभाव है वहीं दूसरी ओर बाजार के भरोसे इसे छोड़ दिया गया है। पूरे देश स्तर पर इसकी कोई प्रामाणिक सस्था नहीं है। इसके कारण मानकों में गड़बड़ी और असंगति पैदा हो रही है।
हलाल अरबी का शब्द है। दरअसल, पारंपरिक इस्लामी कानून के अनुसार भोजन, पेय पदार्थ, दवाओं सहित कई गतिविधियों के लिए संबंधित धार्मिक नेता से एक प्रमाण-पत्र जारी किया जाता है। इस्लामिक शासन वाले देशों में तो बिना इस प्रकार के प्रमाण-पत्र के कोई व्यक्ति या संस्थाएं समान बेच ही नहीं सकता है। गैर इस्लामिक देशों में जहां मुसलमान रहते हैं वहां भी इस प्रकार के प्रमाण-पत्र की जरूरत पड़ती है। यदि प्रमाण-पत्र नहीं है तो इस्लाम धर्म के मानने वाले कोई समान खरद नहीं सकते हैं। हलाल के बारे में बताया जाता है कि यह जीवन का एक तरीका है जिससे शारीरिक को आध्यात्मिक रूप से लाभ पहुंचाया जाता है। दुनिया के इस्लामिक देशों ने अपने यहां इसके लिए बाकायदा एक प्राधिकरण स्थापित कर रखा है। जिस देश में शरिया कानून लागू नहीं है वहां भी कुछ देशों ने अपने अनुसार इस मामले को लेकर कोई न कोई प्राधिकरण जरूर बना रखा है लेकिन भारत में हलाल पर कोई केन्द्रीय प्राधिकरण की स्थापना नहीं की जा सकी है। यहां हलाल प्रमाण-पत्र पर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं की गयी जिससे इस मामले में देशव्यापी कोई मानकता तय हो।
कोई केन्द्रीय प्राधिकरण या अभिकरण नहीं होने से भारत में यह मामला पूरी तरह निजी और असंगठित क्षेत्र के हाथों में है। ऐसे में निजी संस्थाएं स्वयं के दिशानिर्देशों के आधार पर इस व्यवस्था को संचालित कर रहे हैं। इससे हलाल प्रमाण-पत्र जारी करने के मामले में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को बल मिल रहा है। साथ ही अधार्मिकता को बढ़ावा भी दिया जाने लगा है। यही नहीं केन्द्रीय अभिकरण के नहीं होने के कारण उत्पाद और सेवाओं को हलाल प्रमाणित करने के लिए उपयोग किए जाने वाले मानक में देशभर में एकरूपता की कमी है और पारदर्शिता का अभाव दिखता है। व्यवसाइयों और उपभोक्ताओं के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि उनके प्रमाणन शुल्क का उचित उपयोग किया जा रहा है या नहीं। इस प्रकार के मामले अब बड़े पैमाने पर इस्लामिक समाज को परेशान करने लगा है। हलाल प्रमाणन प्रक्रिया में एकरूपता और निरंतरता के बारे में कई प्रकार की चिंताओं को जन्म दिया है। सच पूछिए तो यह आर्थिक मामलों से भी जड़ा हुआ है। हलाल प्रमाण-पत्र जारी करने वाले निजी व्यक्ति या निकाय मन माफिक शुल्क लेकर प्रमाण-पत्र जारी करने लगे हैं। इस व्यवस्था ने धोखाधड़ी को जन्म दिया है।
इस्लाम के धार्मिक मामलों में शनाह शब्द का प्रयोग किया जाता है। शनाह ईश्वरीय कानून है और अपरिवर्तनीय (ईश्वर प्रदत्त) है, जबकि फिकह, परिवर्तनशील इस्लामिक कानून है। विद्वानों की व्याख्या शाब्दिक और आलंकारिक अर्थों पर आधारित है, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या कभी-कभी असत्य और असंतोषजनक हो जाती है। इस्लाम में श्रद्धा रखने वाले संदर्भ की कमी और सीमित समझ के कारण, पवित्र ग्रंथों की आलोचना नहीं सह सकते हैं। इस प्रकार इस्लामी कानून की व्याख्या असहज हो जाती है। इस्लामी कानून, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय मतभेदों साथ ही व्यक्तिगत मतभेदों के स्रोतों की गलतफहमी के कारण अस्पष्टता हो जाता है। इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। सोडियम नाइट्रेट के साथ प्रोसेस्ड मीट का सेवन हलाल की श्रेणी में नहीं आता है, जबकि यह स्वास्थ्य के लिए सही है। जानकारों का मानना है कि इस्लाम के धार्मिक पुस्तकों में स्वास्थ्य से समझौते की बात कहीं नहीं कही गयी है। यदि ऐसी बात है तो फिर इस प्रकार के मांश का सेवन हलाल की श्रेणी से बाहर क्यों है? दूसरी बात, साबुन या डिटर्जेंट आदि दैनिक उपयोग की वस्तुओं में लार्ड या तेल का उपयोग किया जाता है। उसमें कई बार सूअर के चर्बी का भी उपयोग कर दिया जाता है लेकिन यह हलाल की श्रेणी में है। हलाल कानून के तहत किसी भी वस्तुओं में 2 प्रतिशत से कम अल्कोहल के उपयोग की बात कही गयी है लेकिन कई पेय पदार्थों में दो प्रतिशत से ज्यादा अल्कोहल का उपयोग किया जाता है और हलाल प्रमाण-पत्र उन्हें उपलब्ध करा दिया जाता है। व्यक्तिगत कारणों से किसी चीज को तरजीह देना एक बात है और किसी वैध चीज को अवैध घोषित करना दूसरी बात है।
भारत में निर्माताओं के लिए हलाल प्रमाणीकरण का मामला बहुत तेजी से बढ़ रहा है। दरअसल, हलाल सर्टिफिकेशन एक व्यापक बाजार तक पहुंच प्रदान करने के साथ साथ व्यवसायों के लिए लाभदायक सिद्ध हो रहा है। सच तो यह है कि इस मामले में इस्लाम के श्रद्धा पर अब हलाल मायाजाल भारी पड़ने लगा है। इस मामले में हलाल प्रमाण-पत्र बांटने वाले श्रद्धा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। आज यह एक बड़ा व्यापार बन गया है। इसमें धर्म और मान्यताओं से कोई लेना-देना नहीं है। इस्लाम के कई धर्मगुरु हलाल प्रमाण-पत्र बिना किसी धार्मिक नियामक के बांट रहे हैं। नैतिकता और धर्म को ताक पर रखा जा रहा है। उपभोक्तावाद के आंधी दौर में हर कोई पागल बना हुआ है। इसलिए भारत सरकार को इस मामले में कोई प्रमाणिक नियामक और अभिकरण का गठन करना चाहिए। साथ ही इस्लामिक विद्वानों को इस मामले में सरकार का सहयोग भी करना चाहिए।