गौतम चौधरी
हम बात अपने शीर्षक से ही प्रारंभ करते हैं। मसलन, उर्दू के पहले शायर, वली मोहम्मद वली को हमारी पीढ़ी कितना जानती है, इसपर पड़ताल करने की जरूरत है। शायद हमारे पाठकों को यह भी पता नहीं होगा कि जब गुजरात में हिन्दुत्व के नए वर्जन का प्रयोग चल रहा था तो वली की मजार को जमीनदोज कर दिया गया। किन लोगों ने किया, पता नहीं लेकिन वली आज भी जिंदा हैं, उर्दू शेरोशायरी में। दूसरी बात यह है कि उर्दू के रहनुमाओं ने आस्था और पांथिक सोच के आधार पर पाकिस्तान की परिकल्पना प्रस्तुत करने वाले मोहम्मद इकबाल को तो अल्लामा बना दिया और उनके जन्मदिन को उर्दू दिवस के रूप में मनाने लगे लेकिन वली को भुला दिया, जिन्होंने उर्दू जुबान को बहरो से आबद्ध किया, ठेठ बोली को साहित्य का दर्जा दिला दिया। आइए आज हम इसी विषय पर चर्चा करते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप के शुरुआती शास्त्रीय उर्दू शायरों में वली का नाम सबसे बुलंद है। वली को उर्दू शायरी के जन्मदाता के तौर पर भी जाना जाता है। उनकी पैदाइश 1667 में मौजूदा महाराष्ट्र सूबे के औरंगाबाद शहर में हुई। यही कारण है कि उन्हें वली दकनी यानी दक्षिणी और वली औरंगाबादी भी कहा जाता है। वली का एक नाम वली गुजराती भी है। दरअसल, वली का अंतिम पड़ाव गुजरात का अहमदाबाद शहर था। उनकी मृत्यु अहमदाबाद में ही हुई। इस वजह से उन्हें वली गुजराती के नाम से भी पहचाना जाता है।
कहा जाता है कि वली दकनी से पहले हिंदुस्तानी शायरी फारसी में हुआ करती थी। उनकी शायरी के खयाल और अंदाज पर सादी, जमी और खाकानी जैसे फारसी के उस्तादों की छाप साफ नजर आती थी। वली ने ही पहली बार शायरी के लिए खालिस हिंदुस्तानी जबान उर्दू की बेशुमार गुंजाइशों और दिलकश खूबसूरती का पता दिया। वली ही थे, जिन्होंने न सिर्फ उर्दू में गजलें लिखने की शुरुआत की बल्कि इसी शीरीं जबान में अपना दीवान भी रचा। वली ने न सिर्फ शायरी के लिए भारतीय जबान और रस्मुल खत (लिपि) ‘‘रेख््ता’’ (उर्दू का पुराना नाम) को चुना, बल्कि उन्होंने भारतीय मुहावरे, भारतीय खयाल (कल्पना) और इसी मुल्क की थीम को भी अपने कलाम की बुनियाद बनाया। इस तरह मुकामी अवाम उर्दू शायरी से जुड़ गई।
वली को सफर करना बेहद पसंद था और वो इसे सीखने का एक जरिया मानते थे। 1700 में अपनी गजलों के दीवान के साथ जब वो दिल्ली पहुंचे, तो शुमाली (उत्तरी) भारत के अदबी हल्कों में एक हलचल पैदा हो गई। जौक, सौदा और मीर तकी मीर जैसे महान उर्दू शायर वली की रवायत को अपनाया। उस दौर में सबको समझ आने वाली उर्दू जबान में उनकी आसान और बामानी शायरी ने सबका दिल जीत लिया। दरअसल, वली का दिल्ली पहुंचना उर्दू गजल की पहचान, तरक्की और फैलाव की शुरुआत के तौर पर देखा जाता है। यह उर्दू जबान का वह दौर है जब वह भाषा बनने की दिशा में मजबूत छलांग लगाया।
एक ओर वली ने जहां शायराना इजहार के जरिए भारतीय जुबान की मिठास और मालदारी से वाकफि कराया, वहीं फारसी के जोश और मजबूती को भी कायम रखा, जिसका उन्होंने अपनी नज्मों में बखूबी इस्तेमाल किया। वली को शायरी की उस जदीद (आधुनिक) जबान का मेमार (शिल्पी) कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी, जो हिंदी और फारसी अल्फाजों का बेहतरीन मिश्रण है।
1707 में वली मोहम्मद वली का अहमदाबाद में इंतकाल हुआ और वहीं उन्हें दफना दिया गया। 2002 के मनहूस कौमी दंगों के दौरान दंगाइयों ने वली दकनी के मजार को तहस-नहस कर दिया, जो शहर के पुलिस कमिश्नर के दफ्तर के बाहर मौजूद थी। मगर अब वहां वली दकनी की मजार का कोई नामोनिशान नहीं है। चलो मजार में न सही हिन्दवी जबान में तो वली आज भी हमारे बीच हैं।
वली दकनी उर्दू के पहले शायर तो थे ही, जिन्होंने शायरी के हर रूप में अपने कमाल का मुजाहिरा किया। इसके अलावा मसनवी, कसीदा, मुखम्मा और रुबाई में भी उन्होंने हाथ आजमाया, मगर गजल उनकी खासियत थी। वली की पसंदीदा थीम इश्क और मोहब्बत थी। इसमें सूफियाना और दुनियावी, दोनों ही तरह का इश्क शुमार था। मगर उनकी शायरी में हमें ज्यादानजर खुशनुमा इकरार और मंजूरी आती है। इसके बरअक्स उदासी, मायूसी और शिकायत कुछ कम ही महसूस होती है। वली इस मामले में भी पहले उर्दू शायर थे, जिसने उस दौर के चलन के खिलाफ जाकर आदमी के नजरिए से प्यार का इजहार करने की शुरुआत की।
इस महान साहित्यकार को तो मैं नमन करता हूं लेकिन एक प्रश्न मुझे बराकर परेशान करता है कि वली के नाम पर उर्दू दिवस क्यों नहीं, आखिर पाकिस्तान के व्याख्याकार मोहम्मद इकबाल के नाम यह तगमा क्यों? हमें विचार करना चाहिए। साथ ही भारत सरकार को इस दिशा में एक रणनीति बनाकर उर्दू की सियासत को नई दिशा देनी चाहिए।