यदि बराबरी का हक देता है इस्लाम तो महिलाओं को मस्जिद में नमाज पर मनाही क्यों?

यदि बराबरी का हक देता है इस्लाम तो महिलाओं को मस्जिद में नमाज पर मनाही क्यों?

हसन जमालपुरी

इस्लाम प्रत्येक इंसान को बराबरी का हक देता है लेकिन कई ऐसे मौके आते हैं, जहां इस्लाम के व्याख्याकार अपने तरीके से धार्मिक सूचनाओं की व्याख्या कर मानव जाति को अल्लाह के कानून से अलग करने की कोशिश करते हैं। उन्हीं गैरजरूरी व्याख्याओं में से एक व्याख्या, महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश पर मनाही है। इस मामले में सूफी खानकाह एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष जनबा सूफी कौसर हसन मस्जिदी कहते हैं, ‘‘जब मुसलमान हज और उमरा के लिए मक्का और मदीना जाते हैं तो पुरुष और महिलाएं दोनों मक्का में हरम शरीफ और मदीना में मस्जिद-ए-नब्वी में नमाज अदा करते हैं। दोनों जगहों पर पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग हाॅल बनाए गए हैं। साथ ही पूरे पश्चिम एशिया में नमाज के लिए मस्जिद में महिलाओं के आने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। अमेरिका और कनाडा में भी महिलाएं नमाज के लिए मस्जिदों में जाती हैं और रमजान में विशेष तरावीह की नमाज और कुरान खानी के लिए भी वहां इकट्ठा होती है।’’

वास्तव में, इस्लाम के धार्मिक ग्रंथ पवित्र कुरान कहीं भी महिलाओं को नमाज के लिए मस्जिद में जाने से मना नहीं करता है। इस मामले में मौलवी मोहम्मद आलम ने साफ तौर पर बताया कि सूरह तौबा की आयत 71 में कहा गया है, ‘‘इमान वाले पुरुष और महिलाएं एक-दूसरे के पूरक और सहायक हैं। वे दोनों जो कुछ भी अच्छा है, उसे बढ़ावा दें और जो कुछ भी बुरा है, उसका विरोध करते हैं। नमाज स्थापित करें और दान दें, और आज्ञां माने।’’ कुरान जहां भी नमाज अदा करने की बात करता है, वह लैंगिक तटस्थता की बात बरता है। जब मुअज्जन द्वारा पांचों वक्त की दैनिक नमाज से पहले एक प्रार्थना, कौल या अजान का उद्घोष किया जाता है उसमें ऐसा कुछ भी नहीं कहा जाता है कि मस्जिद में केवल पुरुष आएंगे। उस आमंत्रण में इमान वालों को मस्जिद में नमाज के लिए बुलाया जाता है। अजान प्रार्थना के लिए पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए एक सामान्य निमंत्रण दी जाती है। जो लोगों को याद दिलाता है, प्रार्थना के लिए आओ, सफलता के लिए आओ। यहां पर बिना स्त्री-पुरुष के भेद-भाव में अजान दी जाती है। फिर प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर महिलाएं नमाज के लिए मस्जिद में क्यों नहीं जा सकती हैं?

यह मामला इन दिनों भारत के सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। अप्रैल 2019 में मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश की आजादी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गयी। ये याचिका पुणे में रहने वाले दंपति ने दाखिल की है। इस याचिका में कहा गया है कि महिलओं के प्रवेश पर पाबंदी असंवैधानिक है और इससे समता के अधिकार और लैंगिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन होता है। इस मामले में आॅल इंडिया प्रस्नल लाॅ बोर्ड ने एक शपथ-पत्र दाखिल कर कहा है कि इस्लामिक धर्मग्रंथों के मुताबिक इस्लाम में महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश और नवाज पढ़ने की कोई मनाही नहीं है। इससे भी यह साबित होता है कि यह एक तदर्थ व्यवस्था थी और उसे जितनी जल्द से जल्द हो खारिज कर दी जानी चाहिए।

दरअसल, यह प्रचलन भारतीय उपमहाद्वीप में ही है। इस मामले में मध्ययुगीन भारत के इतिहास के अध्येता प्रोफेसर डाॅ. अनिल धवन बताते हैं कि चूकि इस्लाम का धार्मिक चिंतन एक आक्रांता के रूप में भारत आया। आक्रांता कौम पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के प्रति सख्त होता है। महिलाओं पर उसके कानून ज्यादा कठोर होते हैं। यही कारण है कि इस्लाम में जो नियम कानून नहीं भी है उसे भारतीय उपमहाद्वीप की महिलाओं पर कठोरता से थोप दी गयी है। सच पूछिए तो इस्लाम का आधार ही महिला है। इस्लामी मान्यता के अनुसार दुनिया के अंतिम नब्वी, मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी पत्नी को ही कलीमा पढ़ाकर पहला मुसलमान बनाया था। ऐसे में महिलाओं को धार्मिक अधिकारों से बंचित कैसे किया जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप में व्यवहार के तौर पर महिलाओं के नमाज पढ़ने और मस्जिदों में प्रदेश बहुत ही सीमित स्तर पर हंै। समाज की पितृसत्तात्मक सोच महिलाओं के मस्जिद में नमाज पढ़ने को लेकर हतोत्साहित करती है और महिलाओं को घर में भी एकदम अंदर के हिस्सों में नमाज पढ़ने को प्राथमिकता देती है। बाहर के देशों में महिलाओं के लिए मस्जिद में कई व्यवस्थाएं और सुविधाएं उपलबध है, जबकि भारतीय उपमहाद्वीप की मस्जिदों में न वज्जू बनाने की व्यवस्था है और न ही अन्य सुविधाएं। इस्लाम के धार्मिक ग्रंथों में स्पष्ट रूप से महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश की मनाही नहीं है लेकिन प्रचलन में यह लंबे समय से प्रचलन में है। अब इसे बदला जाना चाहिए। इसके लिए एक जनमत बनाने की जरूरत है।

महिलाओं प्रवेश पर इस्लामिक कानून क्या है? दरगाह या कब्रस्तिान में महिलाओं के जाने के अधिकार पर इस्लामिक विद्वानों के बीच स्पष्ट मतभेद है। वही मस्जिद के अंदर नमाज अदा करने के महिलाओं के अधिकार पर असहमति कम है यानी की अधिकांशतः विद्वान सहमत हैं। अधिकांश इस्लामिक विद्वान इस बात से सहमत हैं कि नमाज घर पर पढ़ी जा सकती है लेकिन समूह में ही नमाज को वरीयता है। इसलिए मस्जिद जाने का महत्व है। अधिकांश इस बात से भी सहमत हैं कि बच्चों के पालन-पोषण और अन्य घरेलू जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए महिलओं को छूट दी गयी है, पर मस्जिद में जाने की मनाही नहीं है। लेकिन मस्जिद भी तो महिलाओं को स्वीकार करे। ऐसे में हमें प्रगतिशीलता और गतिशीलता को अपनाने की जरूरत है। इस्लाम में महिलाओं को समान अधिकार दिया गया है। यह भौतिक और धार्मिक दोनों है। धार्मिक अधिकार में यदि कटौती की जाती है तो उसके अधिकार का हनन है। यह कृत्रिम और दीनी दोनों प्रकार के कानूनों की अवहेलना है। इसे समाप्त किया जाना चाहिए। साथ ही मस्जिदों में महिलाओं के लिए सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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