हसन जमालपुरी
ईसाई धर्म भारत की जीवंतता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। भारत के ईसाइयों ने अपनी धार्मिक संबद्धता के बावजूद, यहां की परंपरा, उत्सव और पारस्परिक सम्मान को तरजीह दिया है, साथ ही कभी भी अपनी मान्यताओं को राष्ट्रहित पर हावी नहीं होने दिया। भारत के हिन्दू हों या मुसलमान, समय-समय पर अपनी आस्था का प्रदर्शन करते रहते हैं। इसके कारण आपसी सौहार्द प्रभावित होता है लेकिन ईसाइयों में इस प्रकार की भावना कम पायी जाती है। ईसाइयों ने अपनी मान्यताओं का कभी प्रदर्शन नहीं किया। देश और समाज के हित के लिए ईसाई संस्थाएं अल्प एवं दूरगामी कई प्रकार के कार्यक्रम चलाते रहते हैं। इसके कारण भारतीय ईसाइयों की एक अलग प्रकार की छवि बनी है, जो निःसंदेह रूप से सकारात्मक है।
ईसाई, भारतीय समाज का वह भाग है जो सदा से भारतीयता को महत्व देता रहा है। यही कारण है कि ईसाइयों के प्रति भारतीय समाज का रूख सदा से सकारात्मक रहा है। भारत का आदिवासी क्षेत्र हो या पहाड़ का दुर्गम भाग, मैदान हो या समुद्री किनारा, ईसाई अनुयायियों के द्वारा हर कहीं पीछे लंबे समय से सेवा कार्य चलाया जा रहा है। ईसाई धर्म के केन्द्र चर्च के माध्यम से भी अल्प व दीर्ध कालिक सेवा कार्य चलाए जाते हैं। भारत में निवास करने वाले हर समाज के लोग ईसााइयों के द्वारा चलाए जा रहे सेवा कार्य से लाभान्वित होता रहा है। ईसाइयों ने भारत के सह-अतित्ववादी संस्कृति को बनाए रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। अगर ईसाइयों के प्रति भारत में किसी प्रकार का कोई पूर्वाग्रह होता तो फिर ईसाई अपना प्रभाव जमाने में सफल नहीं हो पाते। ऐसे में अमेरिकी विदेश विभाग की द्वारा ईसाइयों को भारत में प्रताड़ित करने वाला रिपोर्ट पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगता है।
दरअसल, अमेरिकी विदेश विभाग के वर्ष 2022 के लिए अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर रिपोर्ट में भारत पर आरोप लगाया गया है कि वहां ईसाइयों को प्रताड़ित किया जा रहा है। यह किसी भी दृष्टि से सही रिपोर्ट नहीं कहा जा सकता है। भारत में सत्ता और सरकार के द्वारा किसी जाति, संप्रदाय, भाषा-भाषी, क्षेत्र आदि के आधार पर भेद-भाव की बात सरासर गलत है। समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा भारत पर इस प्रकार के आरोप लगाए जाते रहे हैं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। भारत में बड़ी संख्या में हिन्दू धर्म के मानने वाले निवास करते हैं। इसकी संख्या लगभग 80 प्रतिशत है। बहुसंख्यक हिन्दू होने के कारण हिन्दूओं को बराबर टारेगेट किया जाता है लेकिन भारत के कई ऐसे भाग हैं जहां 70 से लेकर 90 प्रतिशत तक ईसाई और मुसलमानों की संख्या है। जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं की संख्या कम है और वहां हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। जम्मू-कश्मीर में लंबे समय तक हिन्दुओं प्रताड़ित किया गया। यही नहीं पूर्वोत्तर के अधिकतर प्रांतों में ईसाइयों की जनसंख्या 50 से लेकर 90 प्रतिशत तक है। यहां भी लंबे समय से हिन्दुओं के प्रति आक्रमण होते रहे हैं। नागालैंड आदि प्रांतों में हिन्दुओं को अपनी मान्ताओं के प्रचार का अधिकार नहीं है। यहां की राज्य सरकारों ने हिन्दुओं के प्रति पूर्वाग्रह रवैया अपनाए हुए है। बावजूद इसके कभी-भी पश्चिमी मीडिया या अमेरिकी विदेश विभाग ने अपना रिपोर्ट प्रकाशित नहीं किया। यहां तक की दुनिया की कोई भी एजेंसियों ने हिन्दुओं के हित में कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं किए। हां, व्यक्तिगत या किसी समूह के द्वारा कोई घटनाएं जरूर घटती रही है, जिसे देश की सरकार और देश की नीति से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है।
आधुनिक भारत में ईसाई धर्मानुयायियों ने देश के विकास पर अपना अमित छाप छोड़ा है। अल्पसंख्यक धर्म होने के बावजूद, ईसाइयों को विभिन्न चरणों में राज्य का समर्थन प्राप्त हुआ है। इसके काई उदाहरण हैं। झारखंड की राजधानी रांची में ब्रिटिश सरकार ने ईसाई मिशनरियों को हजारों एकड़ जमीन रियात दर पर आवंटित की थी। इसका कार्यकाल अभी हाल ही में पूरा हो गया। देश के कई हिन्दुवादी संगठनों ने ईसाई मिशनरियों के पट्टे रद्द करने की मांग की। उस वक्त रज्य में हिन्दू समर्थक कही जाने वाली पार्टी, भाजपा की सरकार थी लेकिन सरकार ने ईसाइयों को जमीन का पट्टा फिर जारी कर दिया। यदि भारत की वर्तमान सरकार सचमुच ईसाई विरोधी होती तो देश के उन तमाम संस्थाओं पर अपना अधिकार कर ली होती, जिसे आज ईसाई न्यासों के द्वारा संचालित किया जा रहा है।
अमेरिकी रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों के विपरीत, ईसाई मिशनरियों को विशेष रूप से भारत में शैक्षिक उन्नति के उनके प्रयासों में राज्य द्वारा सहायता प्रदान की गई है। राज्य द्वारा प्रदान की गई रियायती भूमि पर ईसाइयों के द्वारा विभिन्न प्रकार की संस्थाएं खोली गयी है। यही नहीं कई चर्च को सरकार सहयोग प्रदान कर रही है। उन चर्चों के द्वारा कई धार्मिक प्रचार की योजनाएं संचालित की जाती है। यदि सचमुच भारत की वर्तमान सरकार ईसाई धर्म के प्रति पूर्वाग्रही होती तो ऐसा देखने को कतई नहीं मिलता। भारत सरकार के द्वारा कई पश्चिमी भाषाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है। भारत में वर्ष 1540 में फ्रांसिसियों द्वारा गोवा में बड़ा चर्च स्थापित किया गया। यही नहीं भारत में ईसाइयों के द्वारा कई शैक्षणिक संस्थाएं भी खाले गए हैं, जो आज भी अपना प्रभाव बनए हुए है। इसे सरकार के द्वारा भी सहयोग प्रदान किया जा रहा है।
मसूलीपट्टनम में नोबल कॉलेज, नागपुर में हिसलोप कॉलेज और आगरा में सेंट जॉन कॉलेज जो शिक्षा में उत्कृष्टता के केंद्र के रूप में उभरे हैं, ऐसे संस्थानों के कुछ उदाहरण हैं जो राज्य द्वारा प्रदान किए गए विशेष प्रावधानों की मदद से फल-फूल रहे हैं। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए भारतीय संविधान में अलग से प्रावधान किया गया है। इन राज्यों में अनुच्छेद 371 के तहत विशेष संवैधानिक प्रावधानों ने ईसाई जिंतन को विस्तार दिया है। उत्तर-पूर्व भारत के लोग ईसाई धर्म के इस पहलू को गहराई से महत्व देते हैं।
ईसाई धर्म ने भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में, विशेषकर आदिवासी समुदायों के बीच एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाई है। मिशनरियों ने शिक्षा शुरू करने, निरक्षरता से निपटने और सामाजिक-आर्थिक प्रगति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने लिखित भाषाओं की शुरुआत और स्वदेशी ज्ञान का दस्तावेजीकरण करके आदिवासी पहचान और सांस्कृतिक विरासत विस्तार दिया है। नागालैंड ईसाई संस्कृति का भारतीय प्रयोग-भूमि बन कर उभरा है। यहां 90 प्रतिशत से अधिक आबादी खुद को ईसाई कहता है। राज्य में 1,708 चर्च है। नागालैंड में बैपटिस्ट ईसाइयों का बड़ा समूह निवास करता है। यदि सचमुच भारत सरकार ईसाइयों के खिलाफ होती और सत्ता द्वारा इनके साथ पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार किया गया होता तो आज ईसाई इस स्थिति में नहीं होते।
भारत में ईसाइयों को अपने विश्वास का पालन करने की स्वतंत्रता है। यह भारतीय समाज की समावेशी प्रकृति को प्रमाणित करता है। छिटपुट घटनाओं को उदाहरण नहीं बनाया जा सकता है। इसे प्रमाण के रूप में पेश भी नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा होता हो अमेरिका को खुद अपने गीरेवान में झांकना चाहिए। भारत में जिन घटनाओं को आधार बनाया जा रहा है वैसी घटनाएं अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों में लगातार घअ रहे हैं। भारत में कोई भी नागरिक यहां के सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकता है लेकिन अमेरिका में केवल और केवल चर्च का दबदबा है। वहां चाहे कोई कितना भी राष्ट्रवादी हो जाए जबतक ईसाई नहीं होगा उसे सत्ता में सर्वोच्च पद नहीं दिया जा सकता है। यह अमेरिका का पूर्वाग्रह है। भारत में ऐसी कोई बात नहीं है। इसलिए अमेरिकी विदेश विभाग का उक्त रिपोर्ट पूर्वाग्रह से प्रेरित है। उसे तर्क की कसौटी पर कसा नहीं गया है। साथ जो प्रमाण जोड़े गए हैं उसका कोई महत्व नहीं है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। इनके विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)