तीन हिन्दी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस की हार के मायने 

तीन हिन्दी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस की हार के मायने 

अभी हाल ही में संपन्न छह राज्यों के विधानसभा चुनाव में से तीन में कांग्रेस की करारी हार बिल्कुल अप्रत्याशित नहीं है। हालांकि चुनाव से पहले जब मैं छत्तीसगढ़ गया था तो भारतीय जनता पार्टी जमीन पर कहीं दिख नहीं रही थी लेकिन भाजपा के कार्यकर्ता बिना किसी व्यापक प्रचार के जनसंपर्क करते दिखे। यह जनसंपर्क इतना बड़ा परिवर्तन लाएगा इसका किसी को अनुमान नहीं था। 

भाजपा की यदि बात करें तो इस चुनाव के लिए पार्टी ने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अपने बेहद कुशल संगठन मंत्रियों को काम पर लगाया था। इन संगठन मंत्रियों ने उन तमाम नाराज कार्यकर्ताओं को संगठित किया, जो भाजपा से विमुख हो चुके थे। दूसरी बात भाजपा ने धार्मिक मामले को तो भुनाया ही, साथ में प्रभावशाली जातियों को भी साधने में सफलता हासित कर ली। 

इधर मुख्य प्रतिपक्षी कांग्रेस इन तमाम मोर्चों पर असफल रही। जहां एक ओर भाजपा इन प्रदेशों में कुशल नेताओं को चुनाव प्रबंधन में लगायी वहीं कांग्रेस कुमारी शैलजा जैसी हवा-हवाई नेता को चुनाव प्रबंधन का जिम्मा सौंपा, जो केवल और केवल चुनावी पर्यटन पर प्रदेश का भ्रमण कर रही थी। 

कांग्रेस के मुकाबले भाजपा इस चुनाव को ज्यादा गंभीरता से लड़ती दिख रही थी। कांग्रेस के साथ एक समस्या और है। इन दिनों की कांग्रेस के पास अपना कोई सिद्धांत नहीं है। धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर कांग्रेस मुस्लिम तुष्टकरण के भरोसे चल रही है। समाजवाद के नाम पर जातिवाद को पकड़ लिया है। खासकर बहुसंख्यकों के बीच कांग्रेस की छवि साफ तौर पर हिन्दू विरोधी की बनी है। कांग्रेस के पास अपनी नीति भी नहीं है। कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे साहब संसद भवन में कहते हैं, ‘आप तो बाहर से आए हैं, हम यहीं के हैं।’ यह कितना खतरनाक है। यानी कांग्रेस स्वदेशी है और भाजपा विदेशी? अब देश की जनता समझदार हो चुकी है। इस प्रकार के भाषण और बयानों से जनता पर प्रतिकूल असर होता है। नीति की बात करें तो कांग्रेस के वरिष्ट नेता राहुल गांधी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तर्ज पर पूरे देश में जातिगत जनगणना की बात करने गले। कांग्रेस को यह समझना होगा कि एक छोटे से प्रदेश का मुद्दा राष्ट्रीय नहीं हो सकता है लेकिन राहुल गांधी इस बात को अपनी पार्टी की नीति घोषित करने लगे। वैसे ही कांग्रेस के कई नेताओं ने अपने भाषण एवं बयानों में ऐसी बातों की चर्चा की जिसके कारण पार्टी को तीनों राज्यों में करारी हार का सामना करना पड़ा। 

फिलहाल की कांग्रेस के पास अपना सिद्धांत नहीं है। अपनी नीति नहीं है। अपना काम करने का तरीका नहीं है। नीति और सिद्धांतों पर आधारित काम करने वाले कार्यकर्ता नहीं हैं। कार्यकर्ताओं को नेतृत्व देने वाला नेता नहीं है। आज की कांग्रेस फालतू की धर्मनिरपेक्षता और मुफखोरी की नीति पर आरूढ है, जो कांग्रेस को कमजोर बना रहा है। भाजपा, कांग्रेस की तुलना में सशक्त तो है ही, उसके पास अपने खुद का सिद्धांत और स्पष्ट सोच है। 

यदि भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को लोहा लेना है, तो पहले वह अपने पुराने सिद्धांतों पर लौटे। फिर मध्यमार्गी व उदारवादी आर्थिक नीति को अपनाए। कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था करे। साथ ही जमीनी कार्यकर्ताओं को पार्टी में महत्व दे। यही नहीं जहां कांग्रेस की सरकार चल रही है, वहां भाजपा से हट कर प्रशासन देने की कोशिश करे। केवल मुफ्त की व्यवस्था उपलब्ध कराने से कांग्रेस के प्रति आम जनता का विश्वास जमने वाला नहीं है। इसके लिए शासन के कुशल प्रबंधन और कानून व्यवस्था को मजबूत करके उसे दिखाना होगा। 

इधर के दिनों में भाजपा के रणनीतिकारों ने केवल सामान्य जातियों को ही पार्टी से नहीं जोड़ा है, अपितु पिछड़ी, अति पिछड़ी, अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों में भी अपनी पकड़ मजबूत बनायी है। यानी भाजपा केवल धर्म के भरोसे नहीं है। वह जातियों को भी साधने की कोशिश कर रही है। यही नहीं मुस्लिम समाज में भी भाजपा ने पसमांदा और महिलाओं के माध्यम से पैठ बनाने की कोशिश कर रही है। इस अभियान में भाजपा कितनी सफल होगी पता नहीं लेकिन प्रयास तो कर रही है। इधर कांग्रेस, भाजपा से नाराज कार्यकर्ता, नेता और वोटरों के भरोसे पार्टी चला रही है। इससे कांग्रेस का कल्याण होने वाला नहीं है। कांग्रेस में इस देश की राजनीतिक दिशा बदलने की शक्ति है लेकिन उसके लिए कांग्रेस को पहले खुद खड़ा होना होगा। 

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