राज सक्सेना
इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए कि वर्तमान भारत सरकार सीमाओं पर स्थाई शान्ति के लिए पूर्वोत्तर जिन्हें हम सेवेन सिस्टर्स भी कहते हैं, के आपसी विवादों के स्थायी समाधानों के लिए कृतसंकल्प है। जबसे मोदी सरकार ने देश संभाला है, देश में आंतरिक और सीमावर्ती क्षेत्रों में काफी हद तक शान्ति होना इसका प्रमाण भी है। भारत सरकार के मणिपुर के सबसे पुराने अलगाववादी संगठन यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट से शांति समझौते और उसके सशस्त्र साथियों के हथियार डालकर मुख्य धारा में लौटने से, पूर्वोत्तर भारत में चीन समर्थित अलगाववाद को एक बड़ा झटका माना जा रहा है। चीन के साथ करीबी संबंधों के चलते यूएनएलएफ का घोषित उद्देश्य मणिपुर को भारत से अलग कर उसमें म्यांमार की कबोव घाटी को शामिल कर एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाना रहा है। पूर्वोत्तर भारत के अलगाववादी संगठनों के साथ भी यूएनएलएफ के करीबी रिश्ते रहे हैं। नक्सलियों को हथियार सप्लाई करने के आरोप में उसके सशस्त्र विंग पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर के दो अलगाववादी 2011 में गिरफ्तार भी किए गए थे।
केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार यूएनएलएफ के जरिए भारत के कुछ अलगाववादी संगठनों को चीन से मदद पहुंचने की बात साबित भी हो चुकी है। एजेंसियों के अनुसार पीएलएएम के माध्यम से चीन नक्सलियों को हथियार सप्लाई करता रहा है जो सुरक्षा एजेंसियों की सतर्कता के बाद बंद हुयी है। उम्मीद की जा रही है कि यूएनएलएफ के साथ शांति समझौता पूरे पूर्वोत्तर भारत में स्थायी शांति और अलगाववाद के पूरी तरह से समाप्त होने का मार्ग प्रशस्त करने में सफल हो सकेगा।
मणिपुर विविध संस्कृतियों और जातीयताओं का मिश्रण है और धीरे-धीरे एक गतिशील बहुसांस्कृतिक समाज के रूप में विकसित हुआ है। नगा, कुकी और मैतेई सदियों तक साथ-साथ रहे और अपनी-अपनी जातीय-सामाजिक सीमाओं के भीतर समानांतर रूप से अपनी विरासत विकसित करते रहे। लेकिन मणिपुर की पहाड़ियों और मैदानों के प्रशासन के संबंध में अंग्रेज प्रशासन की श्फूट डालो और राज करो’ नीति और ईसाई धर्म की शुरूआत ने इन समुदायों के बीच सांस्कृतिक अंतर को चैड़ा कर दिया। हालाँकि स्वतंत्रता के बाद भी वे शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहे लेकिन समय के साथ प्राकृतिक संसाधनों पर अतिव्यापी दावों के संबंध में अलग-अलग आकांक्षाओं और कथित असुरक्षा ने उन्हें धीरे-धीरे अलग होने के लिए प्रेरित किया। नागालिम और कुकीलैंड की मांगों के साथ-साथ सांस्कृतिक पहचान और भूमि अधिकारों के लिए अलग-अलग आकांक्षाओं जैसे विकास ने पूर्वाग्रहों को गहरा कर दिया और अंतर-सामुदायिक झड़पों को जन्म दिया।
1949 में भारत के साथ विलय मेतेई लोगों के लिए एक राजनीतिक, सामाजिक और भावनात्मक मुद्दा है। नागालिम के गठन की एनएससीएन (आईएम) की मांग, जिसमें मणिपुर के चार जिले (चंदेल, सेनापति, तामेंगलोंग और उखरुल) शामिल थे, को मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरे के रूप में देखा जाने लगा था। आज तक, मैतेई विद्रोही समूह आत्मनिर्णय और खोई हुई संप्रभुता की बहाली के नाम पर विद्रोह जारी रखे हुए हैं। अपनी ओर से कुकी विद्रोही, संविधान के तहत राज्य के भीतर एक राज्य चाहते हैं, जबकि नगा विद्रोही अभी भी अधिक नागालिम (अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर और नागा-बसे हुए क्षेत्रों को मिलाकर बनाई गई एक अलग इकाई) की मांग के बीच विभाजित हैं। चूंकि कुकी और मैतेई विद्रोहियों ने मुख्य रूप से अपने संबंधित सामुदायिक हितों की रक्षा के लिए उपकरण के रूप में वैचारिक ताकत और प्रासंगिकता हासिल की है, इसलिए गैर-क्षेत्रीय समाधान ढांचे के साथ नगा शांति समझौते का मणिपुर में कुकी और मैतेई विद्रोहियों पर एक निश्चित और सकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना है।
मैतेई विद्रोह का मूल मैतेई पुनरुत्थानवाद है जो 1930 में बंगाल से मणिपुर आये हिंदू वैष्णववाद के खिलाफ शुरू हुआ था। मणिपुर के भारत में विलय के बाद, आंदोलन फैल गया। मेइतियों के बीच यह प्रबल भावना फैल गई कि प्रशासन सहित गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में बाहरी लोगों का वर्चस्व मणिपुर की आर्थिक कठिनाइयों के लिए जिम्मेदार था। 1992 के अंत तक मणिपुरी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल न किए जाने के कारण भी मेइती लोगों में अलगाव की भावना प्रबल हुयी।
वर्तमान मैतेई विद्रोह की उत्पत्ति 24 नवंबर, 1964 को यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) की स्थापना से हुई है। 1978 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के गठन के बाद कट्टरवाद और फैला। पीएलए की विचारधारा वामपंथी है, और यह उत्तर पूर्व के सभी जातीय समूहों को एकजुट करना चाहता था। मेइती लोगों को यह भी लगता है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने से इनकार करने से असंतोष पैदा हुआ और विद्रोही गतिविधियों में वृद्धि हुई क्योंकि मेइती लोगों के लिए रोजगार के अवसर काफी कम हो गए।
नागाओं द्वारा नागा बहुल क्षेत्रों की मांग के साथ मणिपुर राज्य के अस्तित्व पर सवाल उठाया जा रहा था जिसका मैतेई आबादी ने मुखर विरोध किया। परिणामस्वरूप, मुख्य रूप से इंफाल घाटी क्षेत्र में कई अन्य समूहों का गठन हुआ। 14 जून 2001 को एनएससीएन (आईएम) और केंद्र के बीच युद्धविराम को नगालैंड के बाहर सभी नगा आबादी वाले क्षेत्रों तक बढ़ा दिया गया था। इससे मेइती लोगों में विद्रोह भड़क उठा। हालाँकि 1 अगस्त 2001 को मणिपुर के बाहर नगा आबादी वाले इलाकों से युद्धविराम वापस ले लिया गया लेकिन इसने मैतेई विद्रोह की आग में घी की तरह काम किया जिसने गति पकड़ ली और फिर बेलगाम हो गया। नगाओं और मैतेईयों के बीच यह दरार आज भी जारी है और मामूली उकसावे पर हिंसा के रूप में सामने आती है।
उदाहरण के लिए, एनएससीएम (आईएम) नेता मुइवा की 47 साल बाद अपने पैतृक गांव की प्रस्तावित यात्रा, जिसे केंद्र सरकार ने 29 अप्रैल, 2010 को मंजूरी दे दी थी, को घाटी के लोगों ने मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा माना था। राज्य सरकार ने अपने विवेक से, कानून और व्यवस्था की समस्याओं का हवाला देते हुए प्रस्तावित यात्रा को अस्वीकार कर दिया, जो विरोधी दलों की गहरी आशंकाओं और स्थिति को दर्शाता है।
मणिपुर में मैतेई विद्रोही समूह सबसे अधिक सक्रिय रहे हैं। लेकिन सुरक्षा बलों द्वारा चलाये गये सघन अभियान के कारण वे दबाव में हैं। मणिपुर और नागालैंड को छोड़ दें तो अन्य राज्यों में सक्रिय अलगाववादी संगठन पहले से ही शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके हैं और हथियार समर्पण कर मुख्य धारा में लौट चुके हैं। परिणाम स्वरुप पूर्वोत्तर भारत में हिंसक घटनाओं में 73 प्रतिशत, सुरक्षा बलों के जवानों की मौत में 72 प्रतिशत, और आम नागरिकों की मौत में 83 प्रतिशत की कमी आ चुकी है।
नागालैंड में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड आइजक मुइवा, एनएससीएन-आईएम के साथ शांति समझौते के मूलढाँचे पर 2015 में ही सहमति बन चुकी है। सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि यूएनएलएफ के शांति समझौते के बाद एनएससीएन, एनएससीएन आईएम के साथ भी समझौता वार्ता में तेजी आएगी। दोनों अलगाववादी संगठनों के बहुत ही करीबी संबंध रहे हैं और एनएससीएन द्वारा यूएनएलएफ के 1990 में बने भूमिगत विंग पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को ट्रेनिंग भी दी गयी थी। पूर्वोत्तर भारत में शांति स्थापित करने में सबसे बड़ी चुनौती मणिपुर बनी हुई थी। इस वर्ष मई में भड़की हिंसा ने ही मैतेई और कुकी के बीच स्पष्ट विभाजन कर दिया था। जिसमें मैतेई हितों का दावा करने वाले यूएनएलएफ की अहम भूमिका थी। स्पष्ट है कि इसके बाद अन्य मैतेई उग्रवादी गुटों पर भी हिंसा का रास्ता छोड़ने का दबाव बनेगा। कुकी उग्रवादी संगठनों के साथ युद्ध विराम समझौता 2006 में ही हो चुका है और उन्हें हथियार डालकर स्थाई शांति के समझौते पर लाने की बातचीत चल रही है। अगर गंभीरता से मनन किया जाय तो केंद्र और यूएनएलएफ का यह शान्ति समझौता पूर्वोत्तर में स्थायी शान्ति के लिए मील का पत्थर सिद्ध होगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)