ब्राजील में Lula de Silva की जीत के मायने

ब्राजील में Lula de Silva की जीत के मायने

गौतम चौधरी

दुनिया का राजनीतिक भूगोल बहुत तेजी से बदल रहा है। अमेरिकी दादागीरी का दौर समाप्ति की ओर है। इस बीच ब्राजील में एक बार फिर से समाजवादी रुझान की सरकार का आना इस बात का संकेत है कि क्रूर पूंजीवाद के दिन लद गए और मध्यममार्गी समाजवाद के इकबाल बुलंद होने वाले हैं।

ब्राजील के उदारवादी नेता बोलसोनारो राष्ट्रपति का चुनाव हार गए हैं। उनकी हार पर्यावरण व कोविड के कारण बताई जा रही है। बोलसोनारो, कथित रूप से ब्राजील में फैले पचास लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के जैविक संपदा, अमेजन को अपार विध्वंस से बचाने में नाकाम रहे। यही नहीं कोरोना महामारी को उन्होंने मजाक में लिया। वे बिना मास्क के खुद घूमते थे और उनके अनुयायी इस महामारी को सामान्य-सी बीमारी बता कर प्रचार करते थे। इसके कारण ब्राजील में पांच लाख से अधिक लोगों की मौत हुई। इस मौत के लिए बोलसोनारो को जिम्मेदार ठहराया गया। कोविड ने ब्राजील को ग्रस लिया। यहां तक कि भारत से प्राप्त कोवेक्सिन का उपयोग भी वे ठीक से नहीं कर पाए।

नये राष्ट्रपति इग्नेशिया Lula de Silva पुराने सोशलिस्ट नेता हैं। वे जेल भी काट आये हैं और ब्राजिल में लोकतंत्र की स्थापना में बड़ी भूमिका भी निभाई है। मसलन, क्रान्तिकारी रहे हैं। सड़क के किनारे जूता पॉलिश करने से लेकर धातु कारखाने में श्रमिक तक का काम कर चुके हैं। वहीं उन्होंने श्रमिक यूनियन का नेतृत्व किया और अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। लूला अपने राजनीतिक दल का नाम वर्कर्स पार्टी रखा है। फौजी तानाशाह के खिलाफ मोर्चा लिया, यातनाएं सही। लूला केवल ब्राजील के लिए ही नहीं अपितु संपूर्ण लैटिन अमेरिका के लिए एक नायक से कम नहीं हैं। इससे पहले भी वे ब्राजील का दो बार नेतृत्व कर चुके हैं। जब वे पहली बार देश के राष्ट्रपति बने तो कई लोक कल्याणकारी योजनाएं चलाई, जिससे देश के आम लोगों को बेहद फायदा हुआ। आम लोगों की आर्थिक स्थिति में गुणात्मक बदलाव आया। देश के शिक्षा और स्वास्थ्य को लोकोपयोगी बनाया। इस बात को लेकर क्रूर पूंजीवाद का केन्द्र समझा जाने वाला संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील के खिलाफ हो गया। यही नहीं लूला को अस्थिर करने की पूरी कोशिश की लेकिन लूला अपने सिद्धांतों पर कायम रहे। लूला ब्राजील में समतामूलक समाज के निर्माण में कामयाब रहे और अमेरिकी साम्राज्यवाद से लोहा लेते रहे। हालांकि भ्रष्टाचार के आरोप के कारण लूला को सत्ता गवांनी पड़ी लेकिन उसकी छवि पर कोई खास प्रभास नहीं पड़ा। लूला एक बार फिर से ब्राजिल का भविष्य बनने वाले हैं।

इधर लूला के प्रतिद्वंद्वी बोल्सोनारो, दक्षिणपंथी मानसिकता के व्यक्ति हैं। घृणास्पद बातें के लिए वे बराबर चर्चा में रहे हैं। बोल्सोनारो कैथोलिक ईसाई की रुढ़िवादिता में विश्वास करने वाले व्यक्ति के तौर पर जाने जाते हैं। बोलसोनारो की नजर में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का कद छोटा है। उनके आंकलन में अरब तथा अफ्रीकी राष्ट्र मानवता की संचित गंदगी है। ब्राजील की सेना से रिटायर बोलसोनारो सैनिक शासन की वकालत करते रहे हैं। बोल्सोनारो को ब्राजील का ड़ोनल्ड ट्रंप माना जाता है। वह नारी-द्वेषी है। यह विद्वेष उनके घर में भी दिखता है। उनके दो पुत्र हैं। तीसरी संतान बेटी है, जिसके बारे में वे सार्वजनिक मंचों से आलोचना की है। उनकी दृढ मान्यता है कि सेक्युलर गणराज्य की अवधारणा ही फिजूल है। बोलसोनारो की दृष्टि में ईश्वर सर्वोपरि है। बोलसोनारो का कहना है कि यदि अठारह वर्ष से कम का व्यक्ति बलात्कार आदि घृणित अपराध करता है तो उसे बालिग की भांति दण्ड मिले। इस पर उनकी विपक्षी सांसद तथा पूर्व मानवाधिकार मंत्री मारिया डी रोजारियो ने बोलसोनारो को रेपिस्ट कहा। महिला नेता के उस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए बोल्सोनारो ने कहा था कि मारिया तो बलात्कार के लायक भी नही है। यह मामला न्यायालय तक गया और बोलसोनारो को सजा भी मिली। बोलसोनारो का मानना है कि हिंसा शासन का अनिवार्य अंग है। एक टीवी इन्टर्व्यू में वे बोले कि ब्राजील को विकसित बनाना है तो तीस हजार लोगों को गोली से उड़ा देनी चाहिए। इसकी शुरूआत समाजवादी नेता प्रोफेसर फर्नाण्डो हेनरिख कार्डोसो से होनी चाहिए।

ब्राजीलियन ट्रंप का पटाक्षेप हो चुका है। उसके स्थान पर ब्राजील की जनता ने लूला के हाथ में अपना भविष्य सौंप दिया है। लूला ब्राजील को किस दिशा में ले जाएंगे यह तो समय बताएगा लेकिन लूला उन मुद्दों पर चुनाव जीतकर आए हैं, जो अमेरिका और उनके मित्र राष्ट्रों को असहज करता रहा है। लूला को अस्थिर करने की पूरी कोशिश होगी लेकिन इस बार विश्व का राजनीतिक भूगोल अमेरिका के पक्ष में नहीं दिख रहा है। अमेरिका खुद अपने देश में कई प्रकार की आंतरिक समस्या से जूझ रहा है। संयुक्त राज्य में क्रूर पूंजीवाद के बदले मध्यमार्गी समाजवाद की हवा चल रही है। पूरे लैटिन अमेरिका में लाल तूफान बड़ी तेजी से चल रहा है। अमेरिका और उनके मित्र राष्ट्रों के खिलाफ चीन व रूस ने तसल्ली से घेरेबंदी की है। भारत जैसे देश दोनों पक्षों से फायदे उठाने के फिराक में हैं। इससे यह साबित होता है कि दुनिया में अब क्रूर पूंजीवाद कमजोर होगा और मध्यमार्गी समाजवाद की तूति बोलेगी। अमेरिका का प्रभाव घटेगा और उसके स्थान पर क्षेत्रीय आर्थिक हितों पर आधारित संगठनों की ताकत बढ़ेगी। ब्रिक्स तथा शंधाई सहयोग संगठन जैसे अर्थिक गठजोड़ों की ताकत भी बढ़ने वाली है। इसलिए भारत को अपनी कूटनीति को भी फिर से मूल्यांकन की जरूरत है।  

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