गौतम चौधरी
भारतीय समाज की सबसे बड़ी खासियत जाति प्रबंधन है लेकिन कई बार इस प्रबंधन का दुष्परिणाम भी देश को मुगतना पड़ा है। किसी समय जाति व्यवस्था कर्मों के आधार पर बनाई गयी होगी लेकिन बाद में यह जन्म आधारित हो गयी। हमारे देश में आक्रांता आते गए और इस जाति के कुप्रबंधन को उन्होंने अपने हथियार के रूप में प्रयोग भी किया बावजूद इसके जाति का जकरण समाप्त न होकर वह न केवल नये रूप और रंग में प्रस्तुत हुआ अपितु और मजबूत होकर भी उभरा। इसलिए भारत में यह कहावत प्रचलित हो गयी कि भले आप अपना धर्म बदल लें लेकिन आपकी जाति वही रहेगी। भारतीय उपमहाद्वीप की जाति व्यवस्था बेहद नंगा और प्रभावशाली है। भारत में जब मुसलमानों का आगमन हुआ तो हिन्दुओं में कथित उच्च कही जाने वाली जाति से प्रताड़ित कुछ कमजोर जाति के लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया लेकिन वहां भी वे वही रहे। ब्राह्मण यदि मुसलमान हुआ तो उसे शेख और सैयद का तगमा मिला लेकिन जुलाहे को वहां भी जुलाहा ही माना गया। जो दलित थे उसे दलित ही रहने दिया गया। ऐसा केवल मुसलमानों में ही नहीं, ईसाइयों में भी है। इस प्रकार आज भारतीय उपमहाद्वीप में बड़ी संख्या ऐसे मुसलमानों की है जो पिछड़े और कमजोर हैं। इसे पसमांदा के नाम से जाना जाता है। मुसलमानों का उच्च वर्ग शेख, सैयद और पठान हैं। इन्हें अशराफ कहा जाता है और बिरादरी में इनकी अहमियत है। सारे मुस्लिम संस्थाओं में अशराफ भरे पड़े हैं।
अब पसमांदा मुसलमानों में जागृति आई है। पसमांदा अब अपने हक की बात करने लगे हैं। अन्य सरकारों ने भी मुसलमानों के इस वर्ग पर ध्यान दिया लेकिन राजनीतिक कारणों से ही सही वर्तमान नरेंद्र मोदी की सरकार इस पर ज्यादा ध्यान दे रही है। हाल के दिनों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने पसमांदा मुसलमानों तक पहुंच बनाने की कोशिश की है। सरकार की ओर से ऐसे कई प्रयास हो रहे हैं जिससे यह साफ झलक रहा है कि मोदी सरकार के रणनीतिकार मुसलमानों के बड़े समूह पर केन्द्रित अपनी योजनाओं को आकार दे रहे हैं। इस मौके का फायदा पसमांदा मुसलमानों को उठाना चाहिए और अपने पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। अभी हाल ही में सरकार की ओर से स्नेह यात्रा आयोजित की गयी। यही नहीं सरकार महत्वपूर्ण पदों पर पसमांदा तबके के लोगों की नियुक्ति कर यह संदेश देने में लगी है कि सरकार पिछड़े मुसलमानों को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगी है। भाजपा ने इस दिशा में एक बड़ी बहस छेड़ दी है। निःसंदेह यह बीजेपी की गंभीर कोशिश है और इस पर अन्य दलों से लेकर मुस्लिम समाज में भी हलचल है। प्रधानमंत्री अपने नारे, ‘‘सबका साथ सबका विकास’’ के तहत अब विकास पर केंद्रित एक नए तरीके का वोट बैंक तैयार करने लगे हैं। इस वोट बैंक में पसमांदाओं की अहम भूमिका दिख रही है।
मुसलमानों का अशराफ तबका यानी कुलीन वर्ग सदा से पसमांदाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके रखे हुए हैं। यह ठीक उसी तरह है जिस तरह हिन्दुओं में ब्राह्मण या क्षत्रियों का है। अशराफ ये नारा देते हैं कि इस्लाम में जातिवाद नहीं है किन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के तहत मुस्लिम समाज में भी जाति व्यवस्था प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। पसमांदा की अनुमानित संख्या का एक बड़ा हिस्सा जैसे-नाई, कुंहार, बुनकर आदि अन्य पिछड़ा वर्ग में समाहित है। पसमांदा कोई एक खास जाति ना होकर, एक ऐसा समूह है जिसका वर्गिकरण पिछड़ेपन के आधार पर किया जा सकता है। मुसलमानों में अशराफ वर्ग हमेशा से कभी बाबरी मस्जिद के नाम पर तो कभी मुस्लिम प्रश्नल लाॅ बोर्ड ने नाम पर पूरे समाज को भड़काता रहा है और धार्मिक मुद्दों पर अधिक बल देता रहा है लेकिन पसमांदा के मुख्य सवाल रोजी-रोटी, शिक्षा और धार्मिक संगठनों में प्रतिनिधित्व कभी नहीं दिया। मुसलमानों के इसी कमजोर नब्ज को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पकड़ ली है। पसमांदा को लेकर उन्होंने एक पहल शुरू की है। अब इस वर्ग के मुसलमान मोदी और भाजपा के साथ जुड़ने लगे हैं। साथ ही पसमांदा मुसलमानों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे राजनीतिक रूप से समुचित भागीदारी और उनके आर्थिक सशक्तिकरण के मुद्दों का भी हल भाजपा ढूंढने लगी है।
कुछ अशराफ संगठन और नेता पसमांदा समाज के दलित के आरक्षण के लिए आर्टिकल 341 पैरा तीन का राग अलाप रहे हैं। इस मुद्दे को उभार कर वे एक बार फिर से हिन्दू-मुस्लिम यानी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास कर रहे हैं लेकिन अशराफों के मन में पसमांदाओं के प्रति थोड़ा भी प्रेम है तो वे उन्हें धार्मिक संगठनों में बराबर की हिस्सेदारी क्यों नहीं सौंपते हैं? सच तो यह है कि ऐसा कर अशराफ एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं। पहला सांप्रदायिक माहौल बनाकर पहले से पिछड़े पसमांदा पर वर्चस्व को और मजबूत करना और दूसरा उन्हें भीड़ बना सरकार पर दबाव डाल अपनी सत्ता एवं वर्चस्व को बनाए व बचाए रखना। अगर इसे न रोका गया तो पसमांदा आन्दोलन कमजोर पड़ जाएगा और प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा जो अवसर प्रदान किए जा रहे हैं उससे मुसलमानों का एक बड़ा तबता बंचित रह जाएगा। दंगों में गरीब मारे जाते हैं। अशराफ मुसलमान कम ही दंगों का शिकार होते हैं। दंगों में सबसे ज्यादा हानि पसमांदाओं की होती है। पसमांदा मुसलमानों को इस बार अपने निर्णय को लेकर सतर्क होना होगा। आने वाले समय में यदि उन्हें रोजगार और रोटी चाहिए तो अशराफों के बहकावे से उन्हें बचना होगा। पसमांदा मुसलमानों को त्वरित प्रतिक्रिया के बजाए अपनी सामाजिक हिस्सेदारी, आर्थिक सशक्तिकरण और देश के विकास में शैक्षिक भूमिका पर विचार करने की आवश्यकता है। फिलहाल मुसलमानों का नेतृत्व अशराफ वर्ग के हाथ में है। इसमें यदि पसमांदाओं को अपनी हिस्सेदारी चाहिए तो उन्हें अपनी रणनीति खुद तय करनी होगी।