नयी दिल्ली/ देश के 13 पहाड़ी राज्यों पर अनचाहे विकास के खतरे पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र व राज्य दोनों सरकारों से जवाब तलब किया है।
विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी। याचिका में मांग की गई है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र के 13 राज्यों में रिहायश, वाहनों की मौजूदगी, पर्यटन, भू और सतह के जल जैसी प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता, खाद्य आपूर्ति, जैव-विविधता, मौसम व जलवायु और भूकंप क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए धारणीय क्षमता का अध्ययन होना चाहिए। साथ ही विकास व मानवीय हस्तक्षेप वाली गतिविधियों को विनियमित और नियंत्रित करने के लिए ठोस प्रयास किए जाने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में पूर्व आईपीएस अधिकारी डॉक्टर अशोक कुमार राघव की ओर से एडवोकेट आकाश वशिष्ठ ने यह याचिका दाखिल की है। याचिका पर सर्वोच्च न्यायाल के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने संज्ञान लेते हुए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और हिमालयी क्षेत्र के सभी 13 राज्यों की सरकारों को नोटिस जारी कर 20 मार्च, 2023 तक जवाब मांगा है।
बता दें कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, पश्चिम बंगाल, आसाम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, नागालैंड, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश शामिल हैं। इन राज्यों में करीब 5 करोड़ लोगों की रिहायस है।
याचिका के मुताबिक जोशीमठ में 800 घरों के धंसाव और दरारों का एक प्रमुख कारण वहां अनियंत्रित निर्माण और हाइड्रोपावर की परियोजनाएं व होटेल और रिसॉर्ट हैं। याचिका में कहा गया है कि जोशीमठ में यह सब उसकी धारण या सहन क्षमताओ से काफी ज्यादा है।
याचिका में कहा गया है कि जोशीमठ के अलावा अन्य हिल स्टेशन जैसे नैनीताल, मसूरी, अल्मोड़ा, रानीखेत, मुक्तेश्वर, औली, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, पौड़ी, बागेश्वर, कौसानी, पिथौरागढ़, ऋषिकेश, चंबा, हरिद्र, शिमला, नरकंडा, चंबा, खज्जर, डलहौजी, कसौली, धर्मशाला, मनाली, सौलंग घाटी, कोकसार, रोहतंग ग्लेशियर, श्रीनगर और लेह जैसे स्टेशनों पर भी धंसाव और दरारों का खतरा मंडरा रहा है। क्योंकि इन जगहों की भी कैरिंग कैपेसिटी का अध्ययन नहीं किया गया है और इसी आधार पर मनचाहा विकास जारी है।
याचिका में आरोप लगाया गया है कि उत्तराखंड के पर्यटन विभाग ने उत्तराखंड पर्यटन नीति, 2018 में खुद स्वीकार किया था कि अनुमति योग्य धारण क्षमता की पहचान करना एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा 2014 में जलवायु परिवर्तन को लेकर तैयार किए गए उत्तराखंड एक्शन प्लान में भी यह चेताया गया है कि यह राज्य सर्वाधिक जोखिम वाला है जो कि लोगों की आजीविका को सीधा प्रभावित कर सकता है। ऐसे में धारण क्षमता का अध्ययन सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए।
इसी तरह हिमाचल में धौलाधार सर्किट, सतलुट सर्किट, ब्यास सर्किट और ट्राइबल सर्किट के हिल स्टेशन में फैला पर्यटन भी खतरनाक है। यहां की धारण क्षमता का कोई अध्ययन नहीं है। हिमाचल में भी सुरंगों के निर्माण के लिए ब्लास्टिंग जैसी गतिविधियां जारी है। साथ ही ब्यास नदी में मक डंपिंग भी की जा रही है। ऐसे में यहां भी बड़ा खतरा जन्म ले रहा है।
याचिका में आरोप लगाया गया है कि अनियंत्रित ट्रैफिक, पर्यटन, रॉक और हिल में ब्लास्टिंग, व्यावसायिक रिहायश, लगातार बनते हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट हिमालयी राज्यों के लिए खतरा बन चुके हैं। इन राज्यों में कैरिंग कैपेसिटी को लेकर सख्ती के साथ अध्ययन होना चाहिए। इसके अलावा मास्टर प्लान, टूरिज्म प्लान क्षेत्र के विकास का प्लान भी तैयार किया जाना चाहिए।
याचिका के मुताबिक केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और राज्य नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशों के बावजूद ऐसा करने में विफल रहा है। याचिका में सुप्रीम कोर्ट से ऐसी योजनाओं पर काम करने के लिए केंद्र और राज्यों को आदेश दिए जाने की मांग की गई है। बहरहाल इस मामले पर अब 20 मार्च को सुनवाई होगी।