उर्दू अदब पर कार्यक्रम/ आसन्न आर्थिक संभावनाओं के विदोहन में उर्दू की भूमिका अहम

उर्दू अदब पर कार्यक्रम/ आसन्न आर्थिक संभावनाओं के विदोहन में उर्दू की भूमिका अहम

गौतम चौधरी  

अभी हाल ही में संपन्न एक कार्यक्रम के कारण पंजाब और हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़, बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों के लिए चर्चा का केन्द्र बन गया। इस चर्चा का कोई खास कारण तो नहीं था लेकिन कुछ ऐसा हुआ जिसकी नए सिरे से व्याख्या की जा सकती है। सामान्य तौर पर देखें तो चंडीगढ़ के कार्यक्रम की परिकल्पना पंजाब बुक सेंटर के संरक्षक अवतार सिंह पाल के मन की उपज है लेकिन इसके मध्य में कहीं न कहीं भारत के समावेशी राष्ट्रवादी की सोच काम कर रही है। दरअसल, विगत 17 और 18 सितंबर 2023 को चंडीगढ में चिंतक, विद्वान, साहित्यकार और लोकधर्मियों का एक जमावड़ा हुआ। मौका था उर्दू के अदब पर कार्यक्रम का। यह कार्यक्रम ऑल इंडिया तंजीम-ए-इंसाफ के बैनर तले किया गया था। 

कार्यक्रम के आयोजकों में डॉ. सुखदेव सिंह सिरसा और अवतार सिंह पाल केन्द्रीय भूमिका में थे। हालांकि इस कार्यक्रम को पंजाब सरकार की ओर से भी सहयोग किया गया था और खुद राज्य के विधानसभा अध्यक्ष कुलतार सिंह संधवान मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित थे लेकिन कार्यक्रम में देश भर के वे तमाम लोग शामिल हुए जो भारतीय समावेशी राष्ट्रवाद के पैरोकार हैं और भारत को दुनिया की मजबूत ताकत बनाने की कोशिश कर रहे हैं। 

इस कार्यक्रम के मुख्य रणनीतिकार अवतार सिंह पाल ने अपने व्याख्यान में उर्दू के वर्तमान पर प्रकाश डाला और कहा कि यह भाषा भले ही पाकिस्तान की संवैधानिक जुबान हो लेकिन इसका जन्म हिन्दुस्तान में हुआ है। उन्होंने यह भी कहा कि यह भाषा लखनऊ की बताई जाती है लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस भाषा को सींचने में पंजाब के साहित्यकारों की भूमिका अहम है। 

यदि उर्दू के इतिहास पर गौर करें तो यह भाषा कभी शास्त्रीय नहीं रही। यह आम लोगों की जुबान है। इस भाषा के पहले आधिकारिक शायर वली दक्कनी साहब को कभी फारसी या अरबी वालों ने तवज्जो नहीं दी लेकिन वे जीते जी मशहूर हो गए। 2002 के दंगों से पहले उनकी मजार अहमदाबाद में हुआ करती थी लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों ने उसे क्षति पहुंचाया और बाद में गुजरात सरकार ने वहां सड़क बना दी। अब वली की याद केवल लोगों के जेहन और उनकी शायरियों में जिंदा है। चूंकि वली उर्दू जुवान में लिखते और शायरी पढ़ते थे इसलिए उन्हें तत्कालिन अभिजात्य समूह ने ठीक उसी तरह अछूत घोषित कर दिया जैसे महाकवि विद्यापति को संस्कृत के विद्वानों ने किया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। लोकभाषा को आम लोगों का समर्थन प्राप्त होता है। वली दिन व दिन प्रभावशाली होते गए। उर्दू का व्याप इतना बड़ा हो गया कि आज भले लिपि दो हो लेकिन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की जुवान केवल और केवल हिन्दुस्तानी है। इस जुवान को आम लोगों ने पैदा किया है। यह राजदरवार और अकादमिक अनुशासन की भाषा नहीं है। इसलिए इसको बोलने और समझने वाले आज दुनिया में सबसे अधिक हैं। 

वास्तव में इस कार्यक्रम के केन्द्र में क्या था, इस सवाल पर किसी वक्ता ने साफ तौर पर कुछ भी नहीं कहा। लेकिन जी20 के शिखर सम्मेलन में जैसे ही यह प्रस्ताव सिरे चढ़ कि भारत और मध्य-पूरब को जोड़ने वाला एक काॅरिडोर बनेगा, वैसे ही चंडीगढ़ में उर्दू पर कार्यक्रम रखा गया। इसके गहरे मायने हैं। पाकिस्तान से लेकर पूरी पश्चिमी एशिया में जिस लिपि में भाषाएं लिखी जाती है वह अरबी है। अरबी की तुलना में उर्दू में छः लिपियां ज्यादा है। फारसी थोड़ी अलग है लेकिन उसकी भी लिपि अरबी ही है। यदि हमारे युवा, उर्दू में प्रयुक्त लिपि को जान जाते हैं तो आने वाले समय में जो पश्चिम एशिया में विकास होना है उसके हिस्सेदार हमारी नयी पिढ़ी भी होगी। 

पश्चिम एशिया के संसाधनों का विदोहन करने में हमारे युवाओं की भूमिका तब अहम हो जाएगी। यही नहीं मध्य-पूरब की पूंजी फिलहाल यूरोप और अमेरिका में लगी हुई है लेकिन अब पश्चिम में पूंजी सुरक्षित नहीं रही। क्योंकि वहां का पूंजीवादी किला ध्वस्त होने वाला है। इस बात का एहसास मध्य-पूरब के व्यापारियों को हो चुका है। अब वे अपनी पूंजी वहां से निकाल कर पूरब यानी भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, चीन आदि देशों में निवेश करना चाहते हैं। यदि वह पूंजी हमारे देश में निवेश होता है तो हमारी तरक्की की गति और तेज हो जाएगी। इसलिए हमें उस संभावनाओं के विदोहन के लिए तनिक भी देर नहीं करनी चाहिए। उर्दू उस पूंजी के विदोहन में हमारा सहयोग कर सकती है। 

चंडीगढ़ का कार्यक्रम संभवतः इस आर्थिक रणनीतिक रणनीति का एक अंतराष्ट्रीय हिस्सा भी हो सकता है। कार्यक्रम के संचालकों ने क्या सोच कर इस कार्यक्रम को डिजाइन किया यह सार्वजनिक नहीं हो पाया है लेकिन आने वाले समय में पंजाब की सीमा खुलना तय है। पंजाब की सीमा पर व्यापार और रोजगार की अपार संभावना है। इस संभावना के विदोहन के लिए उर्दू जरूरी है। इसलिए उर्दू को संरक्षित और सवंर्धित करना अपने आप में आर्थिक प्रगति का मार्ग खोलने वाला साबित होगा। चंडीगढ़ इसका साक्षी बने, संभवतः इस कार्यक्रम के अन्य कारणों में से एक हो सकता है।     

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