राकेश सैन
सत्ता जब राजनीतिक व निजी हित साधने का माध्यम बन जाए तो वह लोकतान्त्रिक अपराध की श्रेणी में आ जाते हैं परन्तु इस पाप की गम्भीरता उस समय और बढ़ जाती है जब इसके लिए किसी मासूम की बलि लेने का प्रयास होता है। मालेगांव बम विस्फोट मामले में कुछ ऐसा ही हुआ दिखाई पडने लगा है। जो दल आज केन्द्र सरकार पर सत्ता का नशा चढ़ा होने की तोहमत लगाते नहीं अघाते उक्त घटना बताती है कि जब वे कुर्सी पर विराजमान थे तो इसी नशे में मदमत्त थे। उन्होंने तो सारी मर्यादाएं ही लांघ दी थीं। मालेगांव बम विस्फोट की घटना के एक साक्षी ने राष्ट्रीय जाञ्च एजेंसी (एनआईए) के विशेष न्यायालय में पटाक्षेप किया है कि महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) ने उस पर उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ सहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता श्री इन्द्रेश कुमार, स्वामी असीमानन्द, श्री काकाजी एवं श्री देवधर को फंसाने का दबाव डाला था।
मुम्बई पुलिस के पूर्व आयुक्तपरमबीर सिंह उस एटीएस के अतिरिक्त आयुक्त थे। यह साक्ष्य आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 161 के तहत तब दर्ज किया गया था, जब इसकी जाञ्च एनआईए के हाथ में नहीं आई थी। ज्ञात रहे कि 29 सितम्बर, 2008 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के क्षेत्र मालेगांव में हुए बम विस्फोट में छह लोग मारे गए तथा 100 से अधिक घायल हुए थे। इसकी जाञ्च महाराष्ट्र एटीएस को सौम्पी गई थी। एटीएस ने इस मामले में भोपाल की वर्तमान सांसद साध्वी प्रज्ञा, ले. कर्नल पुरोहित, समीर कुलकर्णी, अजय राहिलकर, रमेश उपाध्याय, सुधाकर द्विवेदी एवं सुधाकर चतुर्वेदी को आरोपी बनाया, जिन पर हत्या और हत्या के प्रयास सहित आतंकवाद की कई धाराओं में मामला दर्ज किया।
सत्ता के दुरुपयोग की इससे निकृृष्टतम उदाहरण शायद ही कोई और देखने को मिले। यह वो समय था जब केन्द्र में स. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा की सरकार थी और सरकार के साथ-साथ समस्त छद्मधर्मनिरपेक्ष शक्तियों पर ‘भगवा आतंकवाद’ और ‘हिन्दू आतंकवाद’ का झूठ स्थापित करने का भूत सवार था। तुष्टिकरण के दाद को खुजाने वाली इन शक्तियों का प्रयास था कि देश-दुनिया में फैले जिहादी आतंकवाद पर बुर्का कैसे डालें ? आतंकवाद का कोई धर्म नहीं, रूपी मिथ्या विमर्श स्थापित करने के लिए इस्लामिक आतंक के समक्ष किसे खड़ा किया जाए ? तो इन्हें दिखाई दिया शान्तिप्रिय हिन्दू और चस्पा कर दिया एक ऐसे समाज पर आतंकी होने का दोष जो सदियों से आतंकवाद का शिकार होता आया है। केवल इतना ही नहीं, इस माध्यम से इन छद्मधर्मनिरपेक्षतावादियों ने एक पन्थ दो काज करते हुए अपने राजनीतिक व वैचारिक प्रतिद्वन्द्वी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी निपटाने का प्रयास किया जो तत्कालीन सत्ता महामण्डलेश्वरों के लिए बड़ी चुनौती बने हुए थे।
मालेगांव प्रकरण परिवारवादी दलों से उपजी लोकतान्त्रिक विसंगती की तरफ भी ध्यान खीञ्चता है, कि किस तरह ऐसे दलों की सरकारों में ‘राजपरिवार’ के किसी सदस्य की इच्छापूर्ति के लिए पूरी व्यवस्था सिर के भार खड़ी हो जाती है। विकिलीक्स खुलासा कर चुका है कि पूर्व अमेरिकी राजदूत टिमॉथी जे. रोएमर ने 3 अगस्त, 2009 अपने विदेश मन्त्रालय को लिखे पत्र में राहुल गान्धी के उस बयान का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने हिन्दू आतंकवाद की बात कही। राहुल का कहना था कि हिन्दू आतंक अल्पसंख्यक आतंकवाद से कहीं अधिक खतरनाक है। फिर क्या था कि इस वितण्डावाद पर सच्चाई की पुताई करने को पूरी सत्ताधारी पार्टियां व सारी की सारी व्यवस्था सक्रिय हो गई।
इन संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने के लिए देश की सुरक्षा तक को दांव पर लगाने में भी संकोच नहीं किया गया। उक्त विस्फोट के बाद महाराष्ट्र पुलिस ने नुरूल हुदा, रईस अहमद, सलमान फारसी, फारूक मगदुमी, शेख मोहम्मद अली, आसिफ खान, मोहम्मद जाहिद और अबरार अहमद सहित 9 आरोपियों को गिरफ्तार किया। उन पर मुम्बई के विशेष न्यायालय में केस चला, लेकिन अफसरशाही की विशेषता रही है कि वह अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे समझने में सिद्धहस्त है। जब ऊपर के लोग भगवा आतंक का झूठ तराश रहे थे तो अधिकारियों ने भी इसमें उनका साथ दिया। एटीएस से मामले की जाञ्च केन्द्रीय अण्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को सौम्पी गई, इसके बाद एनआईए को इसकी जिम्मेदारी दे दी गई। स्मरण रहे 2004 से 2014 तक चले संयुक्त प्रगतिशील सरकारों के कार्यकाल के दौरान श्री पी. चिदम्बरम् देश में गृहमन्त्री से लेकर वित्त मन्त्री जैसे बड़े पदों पर आसीन रहे, जिन्होंने हिन्दू आतंकवाद का प्रपञ्च रचने में अग्रणी भूमिका निभाई। मामले में एनआईए के प्रवेश करने के बाद से जांच की दिशा ही बदल दी गई और घटना के पीछे हिन्दू संगठनों का हाथ होने की बात कही जाने लगी। गिरफ्तार मुस्लिम आरोपियों को निर्दोष बताया जाने लगा और उनके लिए मुआवजे तक की पैरवी होने लगी।
पूरे देश में गलत विमर्श स्थापित किया गया कि आतंकवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों को परेशान किया जा रहा है जबकि इसके जिम्मेवार कोई और हैं। एनआईए ने तो न्यायालय में 2011 में स्पष्ट तौर पर कह भी दिया कि वे इन मुस्लिम आरोपियों की जमानत का विरोध नहीं करेगी। जब मामले की पैरवी ईमानदारी से नहीं की गई तो विशेष महाराष्ट्र अपराध नियन्त्रण अधिनियम (मकोका) न्यायालय में न्यायाधीश वीवी पाटिल की अध्यक्षता वाली पीठ को 26 अप्रैल, 2016 को सभी 9 मुस्लिम आरोपियों को रिहा करना पड़ा। इसके बाद एनआईए ने कथित राजनीतिक संरक्षकों के इशारे पर निरपराध हिन्दुओं को आरोपी बनाया जिसका पटाक्षेप अब धीरे-धीरे होता जा रहा है।
मालेगांव केस के 220 साक्षियों में से 15 गवाह अपने साक्ष्य से पीछे हट चुके हैं, तो अब प्रश्न पैदा होना स्वभाविक है कि आखिर उक्त आतंकी घटना को आखिर किसने सिरे चढ़ाया? आतंकवाद जैसे मानवता विरोधी कृत्यों पर राजनीतिक रोटियां किसने सेकी? मामले को भटका कर वास्तविक दोषियों को बचाने का काम किसने किया? सत्ता के नशे में चूर हो कर लश्कर की आतंकी इशरत जहां को बेटी कौन बताता रहा? कौन था जो आतंकवाद में भी सन्तुलन पैदा करने का प्रयोग कर रहा था और इसके लिए निरपराध हिन्दू समाज की बलि दी जा रही थी? स्वभाविक है यह सारी करतूत सत्ता के नशे में की जा रही थी। जो विपक्ष आज मोका-बेमोका सरकार पर सत्ता के दुरुपयोग का आरोप लगाते नहीं थकता, इस प्रकरण के बाद उसे अब आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता है।
(लेखक आरएसएस का मुखपत्र कही जाने वाली साप्ताहिक पत्रिका, पांचजन्य के पंजाब ब्यूरो हैं। लेखक के अपने निजी विचार हैं। इससे जनलेख प्रबंधन को कोई लेना-देना नहीं है।)