कमलेश पांडेय
वैसे तो किसी भी राजनीतिक दल के महाधिवेशन पर प्रबुद्ध वर्ग के लोगों की नजर टिकी होती है लेकिन जब बात प्रमुख विपक्षी दल की हो तो अकसर सत्ताधारी दल की नीतियों से नाखुश लोगों में इस बात उम्मीद बनी रहती है कि शायद इस बार कुछ ऐसा फैसला हो जिससे पहले भविष्य की राजनीतिक तस्वीर बदले और फिर उनकी माली हालत भी सुधरे।
शायद ऐसे ही बहुत बड़े तादाद वाले लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने रायपुर महाधिवेशन में पेश किए गए अपने आर्थिक प्रस्ताव में इस बात की घोषणा की है कि वर्ष 2024 के आम चुनावों में यदि उसे राजनीतिक सफलता प्राप्त होती है तो वह फिर एक नई आर्थिक नीति की शुरुआत करेगी, ताकि अमीर और गरीब के बीच निरन्तर बढ़ रही खाई को पाटा जा सके।
पार्टी ने ऐलान किया है कि जिस तरह से तत्कालीन प्रधानमंत्राी पी वी नरसिम्हाराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की थी, उसी तरह से मौजूदा चुनौतियों का आकलन करते हुए आर्थिक नीतियों की पुनर्संरचना की आवश्यकता है।
वहीं, पार्टी नेता कमलनाथ ने केंद्र की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि गलत नीतियों की वजह से गरीब और अमीर के बीच जो खाई बढ़ी है, उनकी पार्टी उसे पाटने की कोशिश करेगी। इसके लिए ग्रामीण मनरेगा की तर्ज पर शहरी गरीबों के लिए शहरी नरेगा शुरू करेगी। उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की कि शहरी गरीबों के लिए शहरी नरेगा जल्द शुरू किया जाए।
आर्थिक मामलों के एक जानकार ने कांग्रेस के इस नेक इरादे को देर आयद, दुरुस्त आयद वाला सियासी कदम करार दिया है क्योंकि एक बार अपने पूर्व प्रधानमंत्राी श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा किये गए राष्ट्रीयकरण के सफल प्रयासों से इतर जब कांग्रेस पार्टी के ही दूसरे प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने वर्ष 1991 में निजीकरण की शुरुआत की थी तो पार्टी की दुविधा पर उस समय जो सवाल उठाये गए थे और आज जो हालात दिखाई दे रहे हैं, उससे कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों का चिंतित होना लाजिमी है क्योंकि उसकी प्रतिस्पर्धी भारतीय जनता पार्टी ने उनकी नीतियों को जस का तस बनाये रखा है, कुछ मामूली फेरबदल करके ताकि पूंजीपतियों को रिझाया जा सके।
ऐसे में कांग्रेस के इस ऐलान को 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भारत जोड़ो यात्रा के बाद दूसरा नीतिगत मास्टर स्ट्रोक समझा जा रहा है क्योंकि मौजूदा मोदी सरकार द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनके भारतीय साझेदार यानी राष्ट्रीय कम्पनियों को लाभान्वित करने के लिए जो बड़े स्तर पर नीतिगत बदलाव किए गए हैं या फिर किये जा रहे हैं, उससे पूंजीपति वर्ग को तो काफी फायदा है, लेकिन आम आदमी और मध्यम वर्ग के हितों पर गहरा कुठाराघात घात हुआ है।
हालांकि ऐसे लोगों को कांग्रेस के इस नए ऐलान से जीने का एक मकसद मिल गया है। अब तक भाजपा के वोटर रहे इस वर्ग ने, जो पहले कांग्रेस के वोटर समझे जाते थे और हिन्दुत्व के सवाल पर भाजपा से जुड़े थे, अपनी खराब हो रही माली हालत के चलते यदि पुनः कांग्रेस की नीतियों में भरोसा जता दिया और आगामी लोकसभा चुनावों में उसे जमकर वोट दे दिया तो बीजेपी के सारे किये धरे पर पानी फिर जाएगा।
इसलिए भाजपा को चाहिए कि कांग्रेस आर्थिक नीतियों पर जो नया आश्वासन देशवासियों को दे रही है, उसे समय रहते ही समझ ले और तदनुरूप अपनी नीतियों में बदलाव करे, अन्यथा बेरोजगारी-महंगाई के नए दौर में शिक्षा-स्वास्थ्य समेत हर क्षेत्र में निजी कम्पनियों के शोषण-दोहन का जो सामना आमलोग कर रहे हैं, वह पार्टी के रणनीतिकारों पर भारी पड़ सकती है।
अनुभव बताता है कि निजीकरण गलत बात नहीं है लेकिन अधिकारियों -उद्यमियों के पारस्परिक सांठगांठ से प्रभावित राजनेताओं द्वारा जनहित में नियम-कानून ही नहीं बनाना एक ऐसा रोग है जो नई आर्थिक दासता तो दे ही रहा है, साथ ही आम आदमी को समुचित गुणवत्तायुक्त जनसुविधाओं से भी वंचित कर रहा है।
सवाल है कि जब पैसे खर्च करने के बावजूद सही सुविधाएं पैसे खर्चने वाले को नहीं मिलें और गलत कार्य करने वाले लोगों में प्रशासन का खौफ भी नहीं रहे तो फिर सरकार का होना और न होना, कोई मायने नहीं रखता। अधिकांश भारतवासी आज इसी मनःस्थिति से गुजर रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस, समाजवादियों और राष्ट्रवादियों सबको एक समान मौके देकर देख लिए हैं, इसलिए उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ता राजनीतिक अस्थिरता के एक नए दौर का आगाज आने वाले दिनों में कर सकती है।
सच कहा जाए तो कांग्रेस के रायपुर आर्थिक प्रस्ताव से गरीबों और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में कुछ नई उम्मीदें जगी हैं लेकिन उन उम्मीदों का हश्र क्या होगा, यह तो वक्त ही बताएगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेकख के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)
(अदिति)