डॉ. हसन जमालपुरी
बात छोटी है लेकिन बात बड़ी भी है। इस्लाम हमें समानता का अधिकार देता है लेकिन भारत में कुछ ऐसी मुस्लिम ऑटोनोमश संवैधानिक मान्यता प्राप्त संस्थाएं हैं, जो न केवल अशराफ और पसमांदा में भेद करता है अपितु नस्ल के आधार पर भी वहां असमानता देखने को मिलती है। ऐसी ही एक संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम प्रश्नल लॉ बोर्ड है, जहां आज भी अशराफ यानी अगड़ी जाति के मुसलमानों का एकाधिकार है। ‘‘ऑल इंडिया मुस्लिम प्रश्नल लॉ बोर्ड’’ एआईएमपीएलबी अक्सर मुस्लिम समाज को इस बात से डराने व भ्रमित करने का कार्य करता है कि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित भारतीय संसद का उन्हें समर्थन प्राप्त नहीं है। इसके जवाब में बस इतना ही कहा जा सकता है कि भारत की कई ऐसी संस्थाएं हैं, जिन्हें संसदीय शक्ति तो प्राप्त नहीं है लेकिन उसका प्रभाव इतना व्यापक है कि उसपर देश की सुरक्षा टिकी है।
बोर्ड यह भी दावा करता है कि वह सभी मुसलमानों, अशराफ और पसमांदा, दोनों का प्रतिनिधित्व करता है और शरीया कानून में बताए उनके निजी और सामाजिक मूल्यों की रक्षा करता है। इस दावे पर भी पड़ताल की जरूरत है। इस्लाम के मानने वाले चाहे जो कह लें या दावा कर लें लेकिन सच्चाई तो यह है कि भारतीय मुस्लिम-समाज जाति, वर्ग और नस्ल पर आधारित ‘‘मसलकों’’ फिरकों में विभाजित है। यह बोर्ड अपने संगठन में पसमंदा मुसलमानों जैसे-दलित, पिछड़े व जनजातीय के अनुचित प्रतिनिधित्व के कारण इसमें मौजूद भेद को नहीं समझता है। इस बोर्ड का अध्यक्ष हमेशा से सुन्नी मुसलमानों की देवबंदी/नदवी शाखा से तालुक रखने वालों में से ही चुना जाता है, जबकि सुन्नी मुसलमानों में सबसे अधिक संख्या बरेलवी फिरके वालों की है। यही नहीं इस्लामिक चिंतन में बरेलवियों को भारतीय चिंतन के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। हालांकि, इस बोर्ड का उपाध्यक्ष हमेशा-से शिया मुसलमान वर्ग से चुना जाता है, जो तुलनात्मक रूप से संख्या में सुन्नी मुसलमानों के सबसे छोटे फिरके से भी कम हैं लेकिन यहां ऐसी बात नहीं है। प्रश्नल लॉ बोर्ड वैचारिक रूप से शिया मुसलमानों को सुन्नी मुसलमानों के समक्ष मानता है। नस्ली तौर पर देखें तो शिया मुसलमान ईरानी या अरबी नस्ल के हैं, जबकि पसमांदा पूर्ण रूप से भारतीय है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आज भी मुस्लिम समाज अरब-ईरान का गुलाम है।
यह विचारणीय है कि मूल रूप से भारत में रहने वाले पसमांदा मुसलमानों की भाषा, संस्कृति व सभ्यता यहां रहने वाले अन्य निवासियों के जैसी ही है किन्तु अशराफ मुस्लिम समाज के उलेमा इसे गैर-इस्लामी व हिन्दुत्ववादी रिति-रिवाज कह कर नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। अशराफ उलेमा इस्लाम के नाम पर अपनी ‘‘अरबी-ईरानी’’ संस्कृति को भारतीय पसमांदा मुसलमानों के उपर थोपने की कोशिश भी करते रहे हैं। जबकि इस्लाम में निहित ‘‘उर्फ’’ की विचारधारा उन्हें किसी भी क्षेत्र के रिति-रिवाज और पद्धतियां स्वीकार करने की इजाजत, इस शर्त के साथ देता है कि वे इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करेंगे।
गैरतलब है कि एआईएमपीएलबी, भारतीय मुसलमानों में व्याप्त जातिभेद से वाकिफ हैं क्योंकि बोर्ड द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक ‘‘मजमुआ-ए-कवानीन-ए-इस्लामी’’ में विवाह से संबंधित एक अध्याय है, जो नस्ली-जातीय उंच-नीच, देश-विदेश भेदों को स्वीकारता है तथा मुसलमानों के बीच होने वाले उंची व नीची जातियों के विवाहों को गैर-इस्लामी व असंगत करार देता है।
इसके अलावा, बोर्ड औरतों को प्रतिनिधित्व देने के प्रति विशेष प्रकार का बर्ताव करता है तथा वह ज्यादा से ज्यादा अशराफ मुसलमानों को इसमें नियुक्त करना चाहता है। इस ‘बोर्ड’ में लोकतंत्र जैसी कोई चीज नहीं है क्योंकि इसके पदाधिकारियों की नियुक्तियां वंशवाद व नस्लवाद के आधार पर होती देखी गयी हैं व कई बार तो अरबी-ईरानी नस्ल के लोगों के रिश्तेदारों को भी इसके लिए योज्ञ समझा जाता है। सच पूछिए तो यह बोर्ड इस्लाम के मूल सिद्धांतों को भी आईना दिखाता-सा प्रतीत होता है। मसलन, यहां किसी भी प्रकार की चुनाव प्रक्रिया या ‘‘लोकतांत्रिक-व्यवस्था’’ का उल्लंघन किया जाता है, जो इस्लाम के पवित्र गं्रथों दर्ज है। अतः यह साफ हो जाता है कि एआईएमपीएलबी मुसलमानों के प्रत्येक वर्ग की नुमाइन्दगी नहीं करता। इसका एक मात्र लक्ष्य ‘‘इस्लाम’’ के नाम पर अरबी-ईरानी शासक वर्ग से संबंधित ‘‘अशराफ’’ मुसलमानों के हितों की रक्षा करना है। ऐसे में बोर्ड भारतीय मुसलमानों की प्रतिनिधि सभा होने का दावा कैसे कर सकता है। इसके लिए पहले तो उन्हें अपने नेतृत्व समिति को लोकतांत्रिक व सर्वस्पर्शि बनाना पड़ेगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)