गौतम चौधरी
सत्ता के विभिन्न विधायी पंचायतों में महिलाओं का एक तिहाई आरक्षण तो ठीक है लेकिन इसमें अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए। यह देश के समावेशी लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है। लंबे रचनात्मक संघर्ष के बाद नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की केन्द्र सरकार ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए लोकसभा में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण वाला विधेयक पारित कर दिया। इस विधेयक को पास होने में 27 वर्ष लग गए। इस विधेयक के पास हो जाने के बाद अब देश की आधी आबादी को विभिन्न विधायी पंचायतों में 33 प्रतिशत स्थान आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। हालांकि पिछली कई सरकारों ने इसे पारित कराने की पूरी कोशिश की लेकिन मामला कहीं न कहीं जा कर फंस जा रहा था। इस विधेयक के पास हो जाने से देश की महिलाओं को वह हक प्राप्त हो जाएगा, जिसका उन्हें लंबे समय से इंतजार था। इस विधेयक की चतुर्दिक सराहना हो रही है। यह विकास भारतीय राजनीति के क्षेत्र में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। साथ ही भारत के राजनीतिक इतिहास में यह मील का पत्थर साहिब होगा।
सीटों का आरक्षण होना कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। देश के संविधान में महिलाओं को कई प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं लेकिन आज भी महिला प्रताड़ित है। इस महत्वपूर्ण विधेयक के पास होने का जश्न मनाते समय, महिलाओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि आगे का रास्ता और कठिन है। अब धीरे-धीरे ही सही देश की कमान महिलाओं के हाथ में आने वाली है। इस विधेयक के पास होने से बहुत कुछ बदलना फिलहाल संभव नहीं है इसलिए महिलाओं को समावेशन विकास पर जोर देने के लिए अपने आप को सज्ज करना होगा। खास कर मुस्लिम महिलाओं को अपनी भूमिका तय करने का वक्त आ गया है। मुस्लिम महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में सरकार के प्रयास इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय हैं।
वैसे तो इस्लाम में महिलाओं को कई प्रकार के विशेष अधिकार प्राप्त हैं। यहां तक कि मुस्लिम महिलाओं को पिता की संपत्ति में भी अधिकार प्राप्त है लेकिन कुछ रूढ़िवादी तत्वों ने महिलाओं को इस्लाम में मिले कई विशेष अधिकार से बंचित कर रखा है। हदीश आयतों का हवा देकर महिलओं को कमजोर बनाया जाता रहा है। खास कर दक्षिण एशियायी मुल्कों में यह सिलसिला विगत कई सैंकड़ों वर्षों से चल रहा है। उस सिलसिले को तोड़ते हुए नरेन्द्र मोदी की तत्कालिन सरकार ने 1 अगस्त 2017 को एक एतिहासिक फैसला लिया और संसद में बहुमत से तीन तलाक को समाप्त कर दिया। इस एतिहासिक दिन को ‘मुस्लिम महिला अधिकार दिवस’ के रूप में नामित किया गया। इस तीन तलाक वाले विधेयक के पास होते ही मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक जैसे सामाजिक अन्याय से मुक्ति मिल गयी है। मोदी सरकार ने इस अन्यायपूर्ण प्रथा के खिलाफ कानून बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपनी प्रतिबद्धता को साबित करके दिखाया। हालांकि इस मामले में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रथा का यह कहते हुए विरोध किया था कि हिन्दू बहनों को तो हमने उनका वाजिब हक दिला दिया है लेकिन मुस्लिम बहनों को भी उनका बनता अधिकार दिलाना बांकी है। इसके बाद नेहरू कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गए थे और उन्होंने अपना पैर पीछे कर लिया था। इस मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक इच्छाशक्ति कर परिचय देते हुए बिना किसी की परवाह किए तीन तलाक विधेयक को पारित कर कानून का सक्ल प्रदान कर करवा दिया।
लैंगिक समानता और मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा बेहद जरूरी था। यह ध्यान देने योग्य बात है कि अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रति सरकार का समर्पण निरंतर जारी है। इसका एक छोटा-सा उदाहरण अभी हाल ही में देखने को मिला जब 2023 में 4,000 से अधिक भारत की मुस्लिम महिलाएं बिना किसी पुरुष रिश्तेदार या महरम के हज यात्रा पर निकलीं, जिसे पहले अपने यहां स्थायी रूप से गैरकानूनी माना जाता था। यह केवल और केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर हो सका है। इन महिलाओं ने वर्तमान सरकार को और उनके प्रयासों की भूरि-भूरि प्रसंशा की है। साथ ही आभार भी व्यक्त किया है।
इन सराहनीय प्रयासों के आलोक में, प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक के तहत मुस्लिम महिला आरक्षण की वकालत करना उचित है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि हमारे समाज के सभी वर्गों को राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने का अवसर मिल पाएगा। ऐसा विधेयक न केवल समावेशिता के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को रेखांकित करेगा, बल्कि सभी के लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके हमारे लोकतंत्र की नींव को भी मजबूत बनाएगा, भले ही उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो। इन सराहनीय प्रयासों के साथ महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना, राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के भविष्य के लिए एक आशाजनक तस्वीर पेश करता है। लैंगिक समानता की दिशा में यह यात्रा जारी रहे। इसकी राजनीतिक सीमा तय नहीं होनी चाहिए। साथ ही इसे दलगत राजनीति से जोड़ कर भी नहीं देखा जाना चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
भारतीय राजनीति में हालिया घटनाक्रम लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और अल्पसंख्यक समुदायों सहित महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में एक शानदार प्रतिबद्धता का संकेत देता है। जैसा कि हम इन मील के पत्थर का जश्न मनाते हैं, हमें आगे की प्रगति की वकालत भी जारी रखनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश भर में सभी महिलाओं के लिए समान प्रतिनिधित्व और सशक्तिकरण का समान अवसर उपलब्ध हो।