गौतम चौधरी
किसी देश की सफलता कई कारकों पर निर्भर करती है। कई कारकों में से पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारक मानव संसाधन का उन्नयन और विकास है। वर्तमान गलाकाट प्रतिस्पर्धी दुनिया में किसी देश के भविष्य को परिभाषित करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। सच पूछिए तो एक युवा मानव संसाधन संरचना किसी देश या समाज के लिए हमेशा अतिरिक्त लाभ प्रदाता होता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की 58.3 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 29 वर्ष या उससे कम आयु की है, जिसमें 30 और उससे अधिक की श्रेणी में लगभग 41.4 प्रतिशत है। पिछले दशक में 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता प्रतिशत लगभग 73 के साथ शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय प्रगति देखी गई है। हालांकि, जब पूरी दुनिया अपनी ताकत साबित करने में व्यस्त है, भारत में अधिकांश मुस्लिम युवक अपने भविष्य के बारे में कतई गंभीर नहीं दिख रहे हैं। वहीं दूसरी ओर भारत का बहुसंख्यक समाज इस मामले में बेहद गंभीर है। यही नहीं देश के अन्य अल्पसंख्यक भी इस मामले में उत्तरोत्तर प्रगति कर रहे हैं।
अखिल भारतीय सिविल सेवा, विभिन्न राज्यों के पीसीएस, सीडीएस आदि जैसी प्रतिष्ठित परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले मुस्लिम युवाओं का प्रतिशत उनकी आबादी के प्रतिशत की तुलना में गैर-मुस्लिम समकक्षों से बहुत कम है। 2019 की यूपीएससी परीक्षा में सफल उम्मीदवारों में, मुस्लिम 5.3 प्रतिशत थे, जो 2020 में घटकर 4.7 प्रतिशत और 2021 में 3 प्रतिशत रह गए। इसके अलावा, 17.22 करोड़ मुसलमानों के साथ 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी का 14.2 प्रतिशत है। देश की जनसंख्या 29 वर्ष या उससे कम आयु वर्ग में आती है और लगभग साक्षरता प्रतिशत के साथ 73 प्रतिशत, कोई भी सिविल सेवा जैसी परीक्षा के लिए योग्य मुस्लिम युवाओं की संख्या की कल्पना कर सकता है। दिल्ली में राजिंदर नगर, करोल बाग, मुखर्जी नगर, गांधी नगर आदि जैसे स्थान प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यासरत छात्रों के लिए पसंदीदा स्थान हैं। इन स्थानों पर एक निजी सर्वेक्षण संस्था, जनमंच फाउंडेशन ने जब सर्वेक्षण कर अपनी रपट प्रकाशित की तो उससे चौंकाने वाले परिणाम सामने आए। उक्त स्थानों पर मुस्लिम अभ्यार्थियों की संख्या न के बराबर देखने को मिली। हालांकि इससे मुस्लिम छात्र-छात्राओं की गंभीरता का अंदाजा लगा लेना उचित नहीं है लेकिन इन आंकड़ों से समाज की दशा के बारे में मोटी-मोटी जानकारी तो उपलब्ध हो ही जाती हे।
इससे साफ झलकता है कि देश के गंभीर समझे जाने वाले प्रशासनिक तंत्र में मुस्लिम समाज की भागीदारी प्रशित के आधार पर दिन व दिन घटती जा रह है। ओखला या पुरानी दिल्ली जैसे मुस्लिम वाहुल्य आबादी वाले क्षेत्रों का भी जायजा ले लेते हैं। यहां आप सैकड़ों शिक्षित मुस्लिम युवाओं को चाय व पराठे की दुकानों में अपना समय बर्बाद करते देख सकते हैं। यहां के नुक्कड़ पर तुच्छ राजनीति या व्यक्तिगत झगड़ों पर चर्चा करते बड़ी संख्या में मुस्लिम युवक आपको मिल जाएंगे। यह हैरान करने वाली बात है। इन क्षेत्रों में रात का जीवन मंत्रमुग्ध कर देने वाला होता है लेकिन सभी चमक-दमक के पीछे हजारों मुस्लिम युवाओं के अनिश्चित भविष्य का काला सच साफ दिखाई देता है। इसी तरह की स्थिति पूरे देश में मुस्लिम आबादी वाले सैकड़ों शहरों की है।
दूसरी तरफ भारत सरकार ने इन्हें अवसर प्रदान करने के लिए कई प्रकार की सुविधाएं अपनी ओर से उपलब्ध करा रखी है। मसलन, प्री और पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप, मौलाना आजाद नेशनल स्कॉलरशिप, जामिया मिल्लिया इस्लामिया आदि जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में मुफ्त कोचिंग के रूप में कई योजनाएं हैं। बावजूद इसके मुस्लिम युवा अक्सर लापरवाह बने हुए हैं। अपने भविष्य के बारे में उदासीन और अनभिज्ञ हैं। यहां हम केवल उन युवओं को ही दोष नहीं देंगे उनके माता-पिता और अभिभावकों को भी कठघरे में खड़ा करेंगे। इसके साथ ही समाज के धर्मगुरुओं को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए। यदि जुम्मे की नमाज के बाद अपने खुतबे में महान स्वतंत्रता सैनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद समाज को पढ़ने और आजादी की लड़ाई में सिरकत करने का आह्वान कर सकते हैं तो फिर वर्तमान दौर के उलेमा इस रास्ते चलने से क्यों कतराते हैं? वे अन्य खुतबों के साथ यह खुतबा भी जोड़ें और अपने समाज को आधुनिक शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान से सज्ज करने की दिशा में पहल करें।
न्यायपालिका, राज्य पुलिस बल और सीपीएएफ के क्षेत्र में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की कमी के बारे में प्रश्न पूछे जाने की आवश्यकता है, विशेष रूप से अधिकारी वर्ग आदि में सरकार द्वारा समान अवसर उपलब्ध कराने के बावजूद, इन क्षेत्रों में इनकी उपस्थिति नगण्य है। सरकार की निष्क्रियता पर रोना चिल्लाना तब तक ठोस परिणाम नहीं देगा जब तक कि मुस्लिम युवा स्वयं व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन जाते हैं। यह केवल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करके और विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करके ही संभव है।
मुसलमान हर साल जकात और सदका के रूप में लाखों रुपये देते हैं। मुसलमानों द्वारा अपने बच्चों के विवाह के दौरान करोड़ों खर्च किए जाते हैं, जो किसी भी तरह से इस्लाम के अनुरूप नहीं है। यदि इस राशि का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग किया जाए तो गरीब और दलित मुसलमान भी अपना भविष्य संवार सकते हैं।
सही दिशा में उठाए गए रचनात्मक कदमों का समर्थन करने के लिए सरकार ने पहले ही पर्याप्त अवसर प्रदान किए हैं। मुस्लिम बुद्धिजीवियों को अपने समाज के भविष्य को आकार देने के लिए एक सकारात्मक दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। इस्लाम का शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट इतिहास रहा है।
मध्ययुगीन यूरोप के अंध युग के दौरान, मुस्लिम दुनिया में अविश्वसनीय वैज्ञानिक प्रगति हुई। बगदाद, काहिरा, दमिश्क और कॉर्डोबा में प्रतिभाओं ने प्राचीन मिस्र, मेसोपोटामिया, फारस, ग्रीस, भारत और चीन के विद्वानों के कार्यों को अपनाया। जिसे हम आधुनिक विज्ञान कहते हैं इसको बनाने में बगदाद के महान मुस्लिम विचारकों की अभूतपूर्व भूमिका है। इस दौरान नए विषयों का उदय हुआ-बीजगणित, त्रिकोणमिति और रसायन विज्ञान के साथ-साथ चिकित्सा, खगोल विज्ञान, अभियंत्रण और कृषि के क्षेत्रों में मुस्लिम विचारकों का सराहनीय योगदान रहा है। हैरानी की बात यह है कि अधिकांश मुस्लिम युवा अल-जहरावी के सर्जिकल उपकरणों या इब्न फिरनास के उड़ने वाले उपकरण से अनजान हैं।
भारत के मुस्लिम युवाओं को आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है कि क्या वे इस्लाम की समृद्ध विरासत के साथ न्याय कर रहे हैं। यदि वे इस दिशा में पहल करें तो भविष्य का भारत दुनिया को दिशा दे सकता है। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इसके उदाहरण हैं।
‘‘छोड़ो कल की बातें,
कल की बात पुरानी,
नए दौर में लिखेंगे हम मिल कर नयी कहानी,
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी!’’