प्रभुनाथ शुक्ल
कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ठेकेदारी में मुस्लिम आरक्षण का बिल आखिरकार शुक्रवार को शोर शराबे और हंगामे के बाद में राज्य विधानसभा में पारित कर दिया। मुख्य विपक्षी भाजपा के कड़े विरोध के बाद भी सरकार अपने फैसले और हौसले पर अडिग दिखी। सरकार ने निर्माण क्षेत्र में मुस्लिम ठेकेदारों के लिए चार फीसदी आरक्षण लागू करने का फैसला किया है। इसके लिए कर्नाटक ट्रांसपेरेंसी इन पब्लिक प्रोक्योरमेंट यानी केटीपीपी अधिनियम में संशोधन की गई है।
यह प्रस्ताव सबसे पहले 2024 में चर्चा में आया जब सिद्धारमैया सरकार ने मुस्लिम समुदाय को ठेकेदारी में आरक्षण देने की संभावना पर विचार शुरू किया। मार्च 2025 में बजट पेश करते समय मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इसकी आधिकारिक घोषणा किया था। सरकार का दावा है कि इस तरह के आरक्षण से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों को सशक्त करने और समावेशी विकास को बढ़ावा मिलेगा जबकि सरकार की असली मंशा मुस्लिम वोटरों पर है। फिलहाल भजपा बिल के खिलाफ अदालत का रुख करेगी या आंदोलन के जरिए हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करेगी, यह वक़्त बताएगा।
सरकार इस कानून के जरिए मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण करना चाहती है। फिलहाल आम गरीब मुसलमानों को इस कानून से कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। क्योंकि किसी भी सरकारी टेंडर लेने के लिए अच्छी ख़ासी पूँजी होनी चाहिए। सरकार इस तरह का कानून लाकर एक तीर से कई निशाना साधना चाहती है। कांग्रेस को लेकर वह मुसलमानों में एक सहानुभूति पैदा करना चाहती है। दूसरी तरफ सरकार के बेहद करीबी संबंध रखने वाले दौलतमंद मुस्लिमों को बेहतर मौका देना चाहती है। मुस्लिम मतों को हमेशा अपने पाले में रखने के लिए यह तुष्टिकरण की सबसे उम्दा नीति है। जबकि यह संविधान विरोधी है।
राज्य में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने इसे संविधान के खिलाफ बताते हुए अदालत में जाने का फैसला किया है। भजपा का आरोप है कि संविधान में धर्म आधारित आरक्षण का विकल्प नहीं है। धार्मिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का खुद बाबा साहब भीम राव आम्बेडकर ने विरोध किया था। आगरा में बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद उन्होंने खुद कहा था कि धर्म परिवर्तन के बाद हमें अब आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
भारतीय जनता पार्टी ने इसे कांग्रेस की तुष्टिकरण की राजनीति करार दिया है और दावा किया है कि यह संविधान के खिलाफ है, क्योंकि भारत का संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता। भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद और तेजस्वी सूर्या ने इसे असंवैधानिक और वोट-बैंक की रणनीति बताते हुए इसे दलित और पिछड़े वर्ग के हितों के खिलाफ बताया है। जबकि राज्य के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने साफ किया है कि यह आरक्षण केवल मुस्लिमों के लिए नहीं, बल्कि सभी अल्पसंख्यक और पिछड़े समुदायों के लिए है, हालांकि विवाद मुख्य रूप से मुस्लिम कोटा पर केंद्रित है। क्योंकि हमारे संविधान में धार्मिक आधार पर आरक्षण का कोई प्राविधान नहीं है।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इसे राज्य के सभी अल्पसंख्यक समुदाय ईसाई, जैन, सिख के लिए बेहतर बताया है, लेकिन मूल विवाद धार्मिक आधार को लेकर है क्योंकि सरकार सभी अल्पसंख्यकों की बात भले करती हो लेकिन उसकी सोच में सिर्फ मुस्लिम हैं क्योंकि राज्य में तक़रीबन 13 फीसदी मुस्लिमों की आबादी है। सामाजिक संगठनों ने इस आरक्षण पर गंभीर चिंता जताते हुए कहा है कि इससे सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ सकता है। जबकि राज्य के मुसलमानों को ओबीसी श्रेणी के तहत आरक्षण का लाभ 1970 के दशक से मिल रहा है। कर्नाटक की राजनीति में अब यह बड़ा मुद्दा बन गया है जिसमें सामाजिक न्याय, संवैधानिकता, और वोट-बैंक की लड़ाई आमाने -सामने हो गईं है।
कांग्रेस के लिए अहम सवाल यह है कि राहुल गाँधी देश भर में संविधान की किताब लेकर घूमते हैं। लोकसभा चुनाव में उन्होंने संविधान बचाओ का नारा दिया था। फिर कर्नाटक में उन्हें संविधान की लुटिया डूबती क्यों नहीं दिखती। वहां भी तो कांग्रेस सरकार है। फिर मुसलमानों के वोट के लिए दोहरे चरित्र की राजनीति कहाँ तक जायज है। हिन्दुओं की उपेक्षा और मुसलमनों को सिर आँखों पर बिठाने की राजनीति कांग्रेस को ले डूबी। वैसे राहुल गाँधी और कांग्रेस से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। क्योंकि साल 2012 में उन्होंने खुद मुस्लिम आरक्षण की वकालत किया था। देश में मुसलमानों को खुश करने के लिए कांग्रेस जिस तरह की राजनीति कर रहीं है उससे फिरहाल उम्मीद भी नहीं दिखती कि वह दिल्ली की राजनीति में वापसी करेगी।
तुष्टिकरण की राजनीति ने कांग्रेस को कहीं का नहीं छोड़ा। महागठबंधन बनाने के बाद भी कांग्रेस को कुछ हासिल नहीं हुआ। यह दीगर बात है कि लोकसभा में उसकी सीटें अधिक आयीं लेकिन यह गठबंधन की वजह से हुआ। कर्नाटक में संविधान के खिलाफ धर्म के आधार पर मुस्लिम ठीकेदारों को सरकारी कामकाज में चार फीसदी आरक्षण का बिल पास हो गया लेकिन राहुल गाँधी एक शब्द नहीं बोला। इस तरह की राजनीति कांग्रेस के पतन का एक और इतिहास लिखेगी। अगर धर्म के आधार पर धार्मिक अल्पसंख्यकों को सरकारी कामकाज में आरक्षण दिया जा रहा है तो हिन्दुओं को क्यों नहीं। कल दूसरे समुदाय के लोग भी इस तरह के आरक्षण की मांग करेंगे।
बेगम एजाज रसूल ने संविधान सभा में धर्म के आधार पर मुस्लिम आरक्षण पर तीखा विरोध किया था। वह अकेली महिला थीं जिन्होंने इसका खुलकर विरोध किया। उन्होंने कहा था इस तरह के आरक्षण से मुसलमान, बहुसंख्यक समाज का विश्वास खो देगा। इसलिए ऐसे आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है। यह आत्मघाती होगा और बहुसंख्यकों से अलग कर देगा लेकिन आज हिंदू समाज के कथित हिमायती मुस्लिम आरक्षण की माला जप रहे हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए रेवंत रेड्डी ने बीते साल मार्च में शिक्षा और रोजगार में मुसलमानों के लिए चार फीसदी आरक्षण की वकालत किया था। साल 2014 में महाराष्ट्र की तत्कालीन कॉंग्रेस सरकार ने शिक्षा और नौकरी में पांच फीसदी आरक्षण का अध्यादेश पारित किया था।
देश के पूर्व प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने एक बयान में कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। इससे कांग्रेस की सोच साफ हो जाती है। कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार तो मुसलमानों पर मेहरबान है। राज्य के बजट में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए एक हजार करोड़ का विशेष प्राविधान किया है। वफ़्फ़ सम्पति की सुरक्षा और रख रखाव के लिए 150 करोड़ आवंटित किए गए हैं। उर्दू स्कूलों के लिए 100 करोड़ दिए गए हैं। इस तरह से देखा जाय तो कांग्रेस ने मुस्लिम वोट बैंक के लिए देश के संविधान को भी ताक पर रख दिया है। सत्ता के लिए राजनैतिक दल किस हद तक गिर जाएंगे, कहा नहीं जाएगा। सत्ता के लिए हर कोई मुसलमानों की गोद में सोना चाहता है जबकि हिन्दुओं की उपेक्षा की की जा रहीं है। कर्नाटक में एक बार फिर कांग्रेस का काला चेहरा बेनक़ाब हो गया है।
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