डॉ. रूबी खान
भारत, विविधताओं का देश है। भिन्न-भिन्न संस्कृति का सामंजस्य भारत की पहचान है। दुनिया भर के लोग भारत आते रहे हैं। कुछ आक्रांता थे तो व्यापारी, कुछ धार्मिक समूह था तो कुछ दार्शनिक, कुछ हस्त शिल्पकार थे तो कुछ तकनीकविद्द। ये लोग भारत आए। ये अपने साथ अपनी संस्कृति और आस्था भी लेकर आए लेकिन भारतीय चिंतन ने कभी उनकी संस्कृति और आस्था का अपमान नहीं किया। दुनिया में एक मात्र भारत ही ऐसा देश है जहां ईसाइयत के सभी फिरके मिल जाते हैं। ऐसा किसी ईसाई देश में भी देखने को नहीं मिलता है। उसी प्रकार इस्लामिक देश में भी इस्लाम के सभी फिरके नहीं दिखते। पड़ोस के अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे इस्लामिक देश में इस्लाम के कई फिरके प्रतिबंधित है। इस्लामिक देश सऊदी अरब में वहावी सुन्नियों का बोलबाला है तो ईरान में शिया शासन करते हैं। दुनिया का एक मात्र भारत ही ऐसा देश है जहां शासन का आथा और धर्म पर कोई नियंत्रण नहीं है। यहां सत्ता धार्मिक आस्थाओं से नियंत्रित नहीं होती है। यहां सभी चिंतन को तब तक अपने तरीके से फलने-फूलने की इजाजत है जबतक उस भारतीय संविधान के हद में है।
अनादि काल से भारत भिन्न सांस्कृतिक अंतर संबंधों का देश रहा है। आज भी विविधता में एकता भारत की पहचान है। भारत किसी खास धर्म, नस्ल, जाति, भाषा आदि का देश नहीं रहा। वस्तुतः भारत में विविध सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि के लोग निवस करते आ रहे हैं। आज के भारत में इन्हें अपनी संस्कृति और आस्था को प्रचारित-प्रसारित करने का भी अधिकार प्राप्त है। हालाँकि, हाल के वर्षों में, यहां भी धार्मिक असहिष्णुता का थोड़ा प्रभाव देखने को मिल रहा है। इसके कारण कथित इस्लामोफोबिया पर बहस भी छिड़ गयी है लेकिन दुनिया के अन्य देशों की तरह माहौल नियंत्रण से बाहर नहीं है। गोया, दुनिया के अन्य देशों में तो तलवारें खिंची हुई है पर भारत का माहौल अभी तक दोस्ताना बना हुआ है। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहां अन्य धार्मिक मान्यताओं के अलावा इस्लाम के सभी पंथ आबाद हैं। वैसे कुछ मौकापरस्त चिंतक, मीडिया समूह के मानिंद, राजनीतिक व्यक्ति और बाहरी ताकतों से नियंत्रित होने वाले विद्वान कथित तौर पर भारत में भी कई प्रकार के डर का विष्लेशन करते रहते हैं लेकिन यहां की वास्तविकता इससे भिन्न है। ये लोग देश के सामाजिक ताने-बाने की निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं पर जमीनी हकीकत कुछ और है। कुछ घटनाओं को यदि नजरअंदाज कर दें तो यह देश प्रेम, सद्भाव और सह-अस्तित्व का मार्गदर्शक बनकर उभरा है।
सच पूछो तो दुनिया की ऐसी कोई मान्यता नहीं है जो नफरत की वकालत करता हो। फिर भी, इतिहास के पन्ने धार्मिक लड़ाइयों से अटे-पटे अटा हैं । इतिहास में व्यक्ति और समूह धर्म का इस्तेमाल विभाजन के लिए भी करते रहे हैं। फिलहाल के भारत में जो सांप्रदायिक तनाव देखने को मिलते हैं उसे भारत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। समाचार माध्यमों में जो चित्र प्रस्तुत किया जा रहा है उसके उलट, हिंदू-मुस्लिम एकता की कई कहानियाँ ऐसी है जो भारत की समावेशी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। आज हम ऐसी ही कुछ घटनाओं का जिक्र यहां करने वाले हैं। मसलन, ऐसी कई घटनाएं विगत दिनों सुर्खियों में रही। वाराणसी में मुस्लिम पुरुषों के एक समूह ने हिंदू अंतिम संस्कार की सभी रीति-रिवाजों का पालन करते हुए एक युवा हिंदू लड़की का दाह संस्कार किया। कानपुर में बीते शिवरात्रि को मुसलमानों ने हिन्दू भक्तों के लिए दूध और फल का निःशुल्क काउंटर लगाया। मेरठ की एक 42 वर्षीय मुस्लिम महिला हर दिन हनुमान चालीसा का पाठ कर रही है। यह वह अपने कॉलेज जीवन से ही करती आ रही है। वह नमाज भी पढ़ती है और हनुमान चालिसा भी पढ़ती है। असम में एक मुस्लिम परिवार पीढ़ियों से 500 साल पुराने शिव मंदिर की देखभाल कर रहा है तो बिहार के एक गांव में मस्जिद की देखरेख हिन्दू युवकों द्वारा किया जा रहा है। मेरठ में हिन्दू भंडारे के लिए मस्जिद प्रबंधन ने अपने परिसर के उपयोग न केवल आज्ञां दी अपितु भंडारे में मुस्लिम युवकों ने सहयोग भी किया। इसे क्या कहेंगे? ऐसा भारत में ही संभव है।
भारतीय लगातार धार्मिक सीमाओं को पार करते रहे हैं, चाहे वह कांवड़ यात्रियों का समर्थन करने वाले मुसलमान हों या रमजान के दौरान उपवास करने वाले हिंदू। ये सिर्फ़ किस्से नहीं हैं, भारत की गहरी जड़ें जमाए हुए सांस्कृतिक लोकाचार का उदाहरण है। यह दर्शाता है कि कैसे भारतीय, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, सभी धर्मों का पालन करने के अधिकार को बहुत महत्व देते हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि दूसरे धर्मों का सम्मान किस प्रकार किया जाता है। वास्तव में भारतीय होने की पहली शर्त ही धार्मिक और पांथिक सहिष्णुता है।
भारत में, एक ऐसा भी समूह है जो गैर-जिम्मेदार है और बाहरी ताकतों से नियंत्रित होता है। उस समूह का काम ही देश में कलह पैदा करना और उस कलह को प्रचारित कर भारत को बदनाम करना है। इस प्रकार के समूह का किसी जाति और धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। पश्चिमी देशों और पश्चिमी प्रचार माध्यम ने एक नया शब्दा गढ़ा है। इसे वे इस्लामोफोबिया कहते है। इन दिनों भारत में भी इस प्रकार की चर्चा शुरू हुई है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत और पश्चिम की परिस्थति में जमीन आसमान का फर्क। हम भारतीय पश्चिमी नजर से इस्लाम को या हिन्दू को नहीं देख सकते। इसके लिए हमें भारतीय नजरिया बेहतर परिणाम देगा। हां कुछ लोग हैं जो गैर-जिम्मेदार हैं लेकिन उन्हें हम इस्लाम का चेहरा न समझें। जिस प्रकार छिटपुट सांप्रदायिक घटनाएं भारत की पहचान नहीं हो सकती उसी प्रकार कुछ भटके हुए लोग इस्लाम का चेहरा नहीं हो सकते।
कुछ असंतुष्ट लोगों द्वारा कलह फैलाने के प्रयासों के बावजूद, प्रेम, सद्भाव और सम्मान भारतीय समावेशी संस्कृति की पहचान है। एक संस्कृति जो एक-दूसरे के प्रति सम्मान को महत्व देती है, वह किसी भी स्रोत से घृणा को बर्दाश्त नहीं कर सकती। इस्लामोफोबिया सहित किसी भी तरह का नफरत भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। भारत विविध संस्कृति का संरक्षण करने वाला देश है। दुनिया के अन्य भागों में एक-दूसरे के खिलाफ भौतिक संघर्ष करने वाले यहूदी और मुसलमान भारत में एक साथ रह रहे हैं। आपस में लड़ाई के लिए जाने जाने वाले शिया और सुन्नी भारत के कई शहरों में एक ही साथ ताजिया निकालते हैं। इसलिए नकारात्मक पक्ष को दखने और उस पर प्रतिक्रिया देने से ज्यादा बेहद है कि हम समन्वयवादी ताकत को बढ़ावा दें। शांति में ही समृद्धि है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)