गौतम चौधरी
भारत में लगभग 100 वर्षों से आधुनिक किस्म का सहकारिता आंदोलन चल रहा है लेकिन यह सनातन से भारतीय अर्थ चिंतन का आधार रहा है। यही नहीं यह भारत के सनातन जीवन पद्धति का भी अंग रहा है। जैन चिंतन में सकार और अनेकान्त को बहुत महत्व दिया गया है। दिल्ली सल्तनत और मुगल शासन के समय भी सहकारी अर्थव्यवस्था के उदाहरण मिलते हैं। फिरंगी सल्तनत काल में अंग्रेजी हुक्मरानों ने 1904 में सहकारी समितियों की एक निश्चित परिभाषा बनाई और अंग्रेज अधिकारी फेड्रिक निकल्सन ने भारत में पहली सहकारी ऋण समिति की स्थापना की थी।
एक अनुमान के अनुसार, फिलहाल देश में लगभग 8 लाख सहकारी समितियां सक्रिय हैं। इन सहकारी समितियों ने कई करोड़ लोगों को प्रत्येक्ष और परोक्ष रूप से रोजगार दे रखा है। वैसे तो ये समितियां समाज के विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों में काम कर रही है लेकिन कृषि, उर्वरक, चीनी और दूध उत्पादन में उनकी भागीदारी सबसे अधिक है। हाल के दिनों में बैंकिंग क्षेत्र में भी सहकारी समितियों की संख्या बढ़ी है लेकिन इसकी सफलता को लेकर समय-समय पर प्रश्न खड़े होते रहे हैं।
कोरोना महामारी के कारण वर्तमान दुनिया जिस आर्थिक संकट का सामना कर रही है, उससे उबरने का एक मात्र रास्ता सहकारिता आन्दोलन है। सोवियत संघ के पराभव के बाद यह साबित हो गया कि कथित समाजवाद का सोवियत ढ़ाचा किसी कीमत पर लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना नहीं कर सकता है। सोवियत संघ के ढ़हते ही दुनिया के कई समाजवादी किले ध्वस्त हो गए। आज समाजवाद का नारा देने वाला, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना भी सोवियत रूस जैसे समाजवादी आर्थिक चिंतन से कन्नी काट रहा है। दूसरी ओर पूंजीवाद का पैरोकार संयुक्त राज्य अमेरिका भी घुटने के बल रेंगने को विवश है। एक तो पहले से अमेरिका अपने घरेलू मामले को लेकर परेशान था। अब कोरोना ने उसे और कमजोर कर दिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ताम-झाम के साथ घुर राष्ट्रवादी डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन का सत्ता से बेदखन होना है। फिलहाल अमेरिका में प्रगतिशील सोच वाले डेमोक्रैट जो बिडेन की सरकार है। दुनिया के आर्थिक मानचित्र पर फ्रांस, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन, रूस इजरायल आदि देशों में सफल सहकारी संरचना काम कर रही है। ये तमाम देश राष्ट्रवादी सोच वाले मध्यमार्गी अर्थ चिंतन को अपनाकर आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं। इसमें जापान और इजरायल दुनिया का ऐसा देश है जहां बड़ी योजनापूर्ण तरीके से सहकारी समितियां काम कर रही है।
चीन की तरह भारत भी दुनिया का प्राचीन संस्कृति वाला देश है। भारत में सनातन काल से समृद्ध आर्थिक संरचना रही है। सहकार और एकात्मवाद पर आधारित अर्थ चिंतन भारत के राष्ट्र जीवन का आधार रहा है। इसे फिर से जीवित और प्रभावशाली तरीके से लागू करने की जरूरत है। सच पूछिए तो भारत के तीन राजनीतिक-आर्थिक स्वदेशी चिंतकों ने सहकार के सिद्धांत को उत्तम आर्थिक चिंतन बताया है। महात्मा गांधी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दिया तो डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने विकास के चक्रीय सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उसी धारा के अंतिम चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सहकार, सेवा, अन्त्योदय और एकात्मवाद को अपने चिंतन का आधार बनाया। ये कोई नया चिंतन नहीं है लेकिन इस चिंतन को युगानुकूल प्रतिपादित करने का श्रेय पंडित दीनदयाल उपाध्याय को ही जाता है। यदि भारतीय स्वदेशी अर्थ चिंतन के तीन पड़ावों की बात की जाए और उसमें गांधी, लोहिया एवं दीनदयाल के नाम को जोड़ा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इन तीनों चिंतकों का मानना है कि औद्योगिक विकास का पश्चिमी सिद्धांत हिंसक है। यदि अहिंसक विकास की अवधारणा को स्थापित करना है तो औद्योगिक इकाइयों को छोटा बनाना होगा। जितना हो सके मशीनीकरण से बचना होगा। मशीनीकरण से बचना है और अधिक से अधिक लोगों को रोजगार में लगाना है तो उसके लिए एकमात्र रास्ता सहकार का ही है। इस बात को ध्यान में रखते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान केन्द्र सरकार ने एक बार फिर से सहकारी आंदोलन को तेज करने की दिशा में पहल की है। पुरानी विसंगतियों को दूर कर नए सिरे से इसे प्रभावशाली बनाया जा रहा है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने सहकारी मंत्रालय का गठन किया है। यह मंत्रालय सहकारी आंदोलन को मजबूत करने के लिए एक अलग प्रशासनिक, कानूनी और नीतिगत ढांचा उपलब्ध कराएगा और सहकारी समितियों के लिए ‘‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’’ प्रक्रियाओं को कारगर बनाने के लिए काम करेगा।
भारत के संविधान के भाग 9 (ख) के अनुच्छेद 243 में सहकारी समितियों के पंजीकरण की बात कही गयी है। साल 1963 में केंद्रीय आपूर्ति और सहकारिता मंत्रालय ने राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम का गठन किया था। सहकारिता के पैरोकार इसे निर्धन, निर्बल, गरीब, पीड़ित, शोषित लोगों के लिए वरदान बताते हैं। जो लोग सिस्टम नहीं समझते, उनके लिए सहकारिता दैवी अनुकंपा से कम नहीं है। एक-दूसरे की मदद करना और एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ना इसका मूल हेतु है।
सहकारी आन्दोलन की सफलता की बात की जाए तो अमूल, को आखिर कौन नहीं जानता है। दूध से लेकर घी तक और चीज से लेकर मक्खन तक, ये सब कुछ बनाता है। वर्गीज कुरियन ने इसकी नींव रखी और आज की तारीख में यह 26 लाख से अधिक किसानों की सदस्यता वाली संस्था है। अमूल की शुरुआत गुजरात के आणंद गांव से हुई थी। हर सहकारी संगठन अमूल की तरह सफल ही नहीं है। कुछ विसंगतियों के कारण असफल सहकारी संगठनों की सूचि भी बड़ी है। इसमें बैंकों का तो बुरा हाल है। कई को-ऑपरेटिव बैंक, सहकारिता के असफल उदाहरण हैं। सवाल इसलिए उठते रहे हैं, क्योंकि पिछले कुछ सालों में सहकारी बैंकों से जुड़े कई मामले सामने आए हैं। इन बैंकों का नियंत्रण तो भारतीय रिजर्व बैंक के पास है लेकिन उनका प्रशासन राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है। कई बार लोग लोन लेते हैं लेकिन उसको वापस नहीं कर पाते। सहकारी बैंक, दूसरे बैंकों की तरह कठिन शर्तों पर लोन नहीं देते। ऐसे में अक्सर इन बैंकों का पैसा मारा जाता है।
कुल मिलाकर भारत जैसे देश के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था ही कारगर साबित होगी। इस अर्थव्यवस्था में भी सहकार की भूमिका सबसे अधिक होनी चाहिए। एकात्म दर्शन के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय को यदि सची श्रद्धांजलि अर्पित करनी है तो दैत्याकार प्रकृति और मानव विरोधी, हिंसक मशीनों को त्याग सहकार और स्वदेशी चिंतन पर आधारित अर्थ तंत्र को विकसित करने का संकल्प लिया जाए।